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    Aligarh Seat: कौन मारेगा बाजी! सतीश गौतम-बिजेंद्र सिंह और गुफरान नूर के बीच सीधा मुकाबला, तीनों के सामने ये चुनौतियां

    Updated: Sun, 31 Mar 2024 10:15 AM (IST)

    Aligarh Lok Sabha Election 2024 सांसद सतीश गौतम टिकट की जंग में तो जीत गए मगर अब चुनौती उनके सामने सभी को साथ लेकर चुनाव लड़ने की है। यही हाल सपा का है। कांग्रेस छोड़कर आए चौ. बिजेंद्र सिंह को प्रत्याशी बनाना कुछ के गले नहीं उतर रहा। बसपा प्रत्याशी को खुद की पहचान बड़ी करने की चुनौती का सामना करना होगा।

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    Aligarh Seat: कौन मारेगा बाजी! सतीश गौतम-बिजेंद्र सिंह और गुफरान नूर के बीच सीधा मुकाबला, तीनों के सामने ये चुनौतियां

    संतोष शर्मा, अलीगढ़। Aligarh Lok Sabha Candidates: ताला-तालीम के लिए पहचान रखने वाला अलीगढ़ राजनीति में भी उतना ही विख्यात है। यहां की राजनीति में पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ‘बाबूजी’ का अध्याय अमिट है। उनके बिना यह पहला लोकसभा चुनाव है। भाजपा उनके प्रभाव से खुद को मजबूत मान रही है। विरोधी दल उनके न होने पर नए समीकरण गढ़ लोकसभा सीट पर तस्वीर बदलने की कोशिश में हैं। अलीगढ़ के राजनीतिक परिदृश्य पर संतोष शर्मा की रिपोर्ट...

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    मैदान सज चुका है और सभी दलों ने प्रत्याशी भी उतार दिए हैं। भाजपा ने तीसरी बार सांसद सतीश गौतम (Satish Gautam) पर दांव खेला है। सपा-कांग्रेस गठबंधन से पूर्व सांसद चौ. बिजेंद्र सिंह रण में हैं। वह पहले कांग्रेस में थे। एक साल पहले ही साइकिल पर सवार हुए। बसपा ने आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआइएमआइएम) छोड़कर आए गुफरान नूर को प्रत्याशी बनाया है। भाजपा के अभेद किले पर विपक्ष की नजर है।

    माहौल चुनावी है। चाय की ठेली से खेतों में काम कर रहे किसानों के बीच चुनाव की ही बात है। चर्चाओं के केंद्र में मोदी हैं। महंगाई का मुद्दा लोगों की जुबां पर है, पर उतना नहीं। लोग राष्ट्र निर्माण और मजबूत सरकार को अधिक बल तो दे रहे हैं, पर क्षेत्र के मुद्दों पर भी सवाल करते दिख रहे हैं। अलीगढ़ में होली से पहले भगवा खेमे का नूर बदरंग था। सभी की चिंता टिकट को लेकर थी।

    कोई टिकट कटने की उम्मीद पाले हुए था तो कोई सांसद का टिकट बचे रहने की। होली वाली रात आई खबर ने विरोधियों का रंग फीका कर दिया। टिकट फिर मिलने पर सांसद खेमे ने होली के साथ दीपावली भी मनाई। टिकट को लेकर खेमेबंदी अकेले भाजपा में नहीं रही। सपा-कांग्रेस गठबंधन में भी अंदरखाने ऐसा ही चला। भाजपा के पत्ते खुलने के बाद बसपा प्रत्याशी की घोषणा से संसदीय क्षेत्र के प्रत्याशियों की तो तस्वीर साफ हो गई, मगर जीत के लिए सभी समीकरणों में उलझे हैं।

    दावे सबके अपने हैं पर, चुनावी चर्चाओं में भी यही बड़ा सवाल है कि बाजी कौन मारेगा? शहर के काजीपाड़ा, जयगंज निवासी सलीम मुख्तार तो इस बार भी मोदी के नाम पर चुनाव मान रहे हैं। कहते हैं, लोग मोदी के नाम पर वोट देंगे। सपा-कांग्रेस गठबंधन नया नहीं है। भाजपा को टक्कर देने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी।

    सबको पता है क्या होना है कहते हुए बारहद्वारी पर साइकिल की दुकान संचालक सरदार हरदीप सिंह पीएम मोदी की तरफ इशारा करते हैं, मगर बरौली विधानसभा क्षेत्र के गांव सरमस्तपुर निवासी किसान अवधेश सिंह इससे सहमत नहीं। बोले, महंगाई से किसान परेशान हैं। किसानों को आज भी उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल रहा। किसानों को मिलने वाली सम्मान निधि की राशि से पेट नहीं भरने वाला। सीजन पर बासमती चावल की कीमत 4800 तक थी।

    अब 2700 से 3500 तक बिक रहा है। खेतों में बेसहारा पशु नुकसान कर रहे हैं, लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के राजनीतिक विज्ञान विभाग के प्रो. आफताब आलम तस्वीर साफ करते हैं। कहते हैं ध्रुवीकरण की राजनीतिक होगी तो इसमें समझने के लिए कुछ बचता ही नहीं है। शोध तो वहां करने की जरूरत होती है, जहां कुछ संभावना दिखे। इस बार तो 2019 से अधिक तस्वीर साफ है।

    पिछले चुनाव में सपा, बसपा और रालोद साथ थे। इस बार रालोद और बसपा अलग हैं। विरोधी दल मजबूत होने के बजाय कमजोर हुआ है। पिछले चुनाव में विपक्ष को मिले वोट को जोड़ा दिया जाए तब भी भाजपा को मिले वोट के बराबर नहीं बैठता, मगर गभाना के वीरेंद्र जिले में विकास के कई काम होने पर संतोष तो जताते हैं, लेकिन मुद्दे भी गिनाने लगे। बोले, अब जनता को दावे और वादों पर जवाब भी देना पड़ेगा। बहुत काम बाकी हैं। सब कुछ आसान नहीं।

    तीनों दलों में चुनौतियां

    सांसद सतीश गौतम टिकट की जंग में तो जीत गए, मगर अब चुनौती उनके सामने सभी को साथ लेकर चुनाव लड़ने की है। यही हाल सपा का है। कांग्रेस छोड़कर आए चौ. बिजेंद्र सिंह को प्रत्याशी बनाना कुछ के गले नहीं उतर रहा। बसपा का कैडर वोट है। प्रत्याशी मुस्लिम समाज से होने का लाभ मिलने के दावे हैं, लेकिन प्रत्याशी को खुद की पहचान बड़ी करने की चुनौती का सामना करना होगा।

    इस तरह हुआ बंटवारा

    पहले अलीगढ़ और हाथरस लोकसभा क्षेत्र के लिए एक मतदाता दो वोट डालता था। तब अलीगढ़ सामान्य और हाथरस आरक्षित सीट थी। 1962 के बाद दोनों लोकसभा क्षेत्र अलग-अलग हो गए। 2009 में इगलास विधानसभा क्षेत्र अलीगढ़ में था, जबकि अतरौली विधानसभा सीट हाथरस लोकसभा क्षेत्र में। इसके बाद नया परिसीमन लागू हुआ। अलीगढ़ लोकसभा क्षेत्र की छर्रा और इगलास विधानसभा सीट हाथरस लोकसभा क्षेत्र में शामिल हो गई। अलीगढ़ लोकसभा क्षेत्र में अब शहर, कोल, बरौली, खैर व अतरौली विधानसभा क्षेत्र हैं।

    पांच बड़े मुद्दे

    1. 1975 में स्थापित की गई साथा चीनी मिल जर्जर है। किसानों पेराई के लिए दूसरे जिलों की मिल जाना पड़ता है।
    2. जिले में रिंग रोड अधूरा है। इसके चलते शहर में जाम लगता है। उद्योग भी प्रभावित हैं।
    3. ताला कारोबारी लंबे समय से कंटेनर डिपो की मांग कर रहे हैं ताकि निर्यात-आयात में सहूलियत हो सके।
    4. जलनिकासी व्यवस्था सही न होने के चलते बरसात के दौरान हर वर्ष शहर में जलभराव होता है।
    5. शतप्रतिशत संरक्षण न होने के चलते जिलेभर में बेसहारा पशु मुश्किलों का सबब बन गए हैं।

    भाजपा छह बार जीती सपा का खाता नहीं खुला

    अलीगढ़ लोकसभा सीट से सपा को एक बार भी जीत हासिल नहीं हो सकी। पार्टी नेताओं को खाता खोलने की चिंता है। अब तक हुए 17 बार हुए लोकसभा चुनाव में से कांग्रेस को चार, बसपा को एक बार, भाजपा को छह बार, रिपब्लिकन पार्टी को एक, भारतीय क्रांति दल को दो, जनता दल को एक और जनता पार्टी को दो बार जीत हासिल हुई है।

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