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पुण्‍य तिथि विशेष: गालिब का अंदाज-ए-बयां कुछ ऐसा था कि पत्र भी बन गए धरोहर Agra News

महान शायर मिर्जा असदुल्लाह बेग खां गालिब की पुण्‍य तिथि पर इतिहास कार राजकिशोर राजे ने परिचित कराया नायाब शैली से।

By Tanu GuptaEdited By: Published: Sat, 15 Feb 2020 03:10 PM (IST)Updated: Sat, 15 Feb 2020 03:10 PM (IST)
पुण्‍य तिथि विशेष: गालिब का अंदाज-ए-बयां कुछ ऐसा था कि पत्र भी बन गए धरोहर Agra News
पुण्‍य तिथि विशेष: गालिब का अंदाज-ए-बयां कुछ ऐसा था कि पत्र भी बन गए धरोहर Agra News

आगरा। उर्दू के सर्वकालिक महान शायर मिर्जा असदुल्लाह बेग खां 'गालिब' की शायरी पर बहुत कुछ कहा और लिखा गया, लेकिन उनकी पत्र लेखन शैली से अधिकतर लोग अनभिज्ञ हैं। 27 दिसंबर, 1797 को आगरा के पीपल मंडी क्षेत्र के अंतर्गत हवेली राजा गजसिंह की बारादरी में जन्मे गालिब कम उम्र में ही आगरा से दिल्ली चले गए और फिर कई बार उन्होंने कूचे बदले। इस दौर में वह अपने मित्रों से पत्रों के मार्फत लगातार संवाद करते रहे। आज यह पत्र धरोहर हैं, जिन्हें कई बार पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया। गालिब की इसी पत्र लेखन शैली का गहन अध्ययन कर उसकी विशिष्टताओं से परिचित करा रहे हैं - इतिहासकार राजकिशोर 'राजे'

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बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि गालिब शायरी के साथ-साथ पत्र लेखन की कला में भी अद्वितीय थे। उन्हें पत्र लिखने का बेहद शौक था। वह अपने मित्रों, रिश्तेदारों व प्रशंसकों को निरंतर पत्र लिखा करते थे। फाकामस्त तबियत के गालिब कभी-कभी पैसा न होने की स्थिति में बैरंग ही पत्र भेज दिया करते थे।

वस्तुत: गालिब के पत्र लेखन की शैली उसे पाने वाले को भाव विभोर कर देती थी। स्वयं उन्हें भी दूसरों के पत्र पाकर जो प्रसन्नता होती थी, वह उन्हीं के शब्दों में- 'आज अगर मेरे सब दोस्त व अजीज यहां फराहम और हम और वो बाहम होते तो कहता के आओ और रस्में तहनियत (बधाई की रस्म) बजा लाओ। खुदा ने फिर वो दिन दिखाया के डाक का हलकारा अनवरद्दौला का खत लाया।'

गालिब के पत्र लेखन की एक प्रमुख विशेषता है कि उनके सभी खत अपने में एक सजीव वातावरण बनाए रखते हैं। उन्होंने अपने खतों में युग स्थान व समय को बखूबी अंकित किया है। जैसे, '... सुबह का वक्त है। जाड़ा खूब पड़ रहा है। अंगीठी सामने रखी हुई है। दो हर्फ लिखता हूं। आग तापता जाता हूं।' गालिब के ऐसे पत्र जो प्राप्त करता था, उसे ऐसा महसूस होता था, मानो पत्र लेखक उसके ही सामने बैठा है। एक और पत्र में गालिब लिखते हैं कि- 'लो भाई अब तुम चाहे बैठे रहो या जाओ अपने घर। मैं तो रोटी खाने जाता हूं। अंदर बाहर सभी रोजेदार हैं। यहां तक कि बड़ा बेटा बकार अली भी। सिर्फ मैं और मेरा एक प्यारा बेटा हुसैन खां रोजाखार हैं।

सन 1857 के गदर को खुद अपनी आखों से देखा और भोगा था। उन्होंने अपने जीवन काल के सांध्य में देखा कि गदर के समय किस तरह दिल्ली का साहित्य समाज नष्ट हो गया। उसके पश्चात किस तरह लाल किले की भव्य व मजबूत इमारतें सुरंग बनाकर विस्फोटों से उड़ा दी गईं। भग्न हृदय गालिब सब देखते रहे। वे विवश थे पर इन सब का उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर गहरा प्रभाव पड़ा। गालिब के पत्र लेखन की एक अन्य विशेषता यह है कि विषय की विविधता के साथ लेखन बदलता जाता है। उन्होंने एक पत्र को एक ढंग से लिखा है और दूसरे को दूसरे ढंग से। उनके एक पत्र का प्रारंभ इस प्रकार है- 'अहा, हा हा, मेरा प्यारा मीर मेहंदी आया। आओ भाई बैठो। मिजाज तो अच्छा है। बैठो। ये रामपुर है।' दूसरा एक अन्य खत गालिब इस प्रकार प्रारंभ करते है, 'आओ साहब, मेरे पास बैठ जाओ और सुनो।'

वास्तव में गालिब के पत्रों में उसी तरह चढ़ाव उतराव है, जैसे खुद गालिब की जिंदगी में रहे। उन्हें जिंदगी में कई बार खूब पैसा मिला, जिसे उन्होंने तुरंत उड़ा दिया। शराब के शौकीन गालिब को मुफलिसी के दौर में अपने घर में जुआ कराने के जुर्म में तीन माह जेल में रहना पड़ा था। कभी इन्हीं गालिब को मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर का संरक्षण प्राप्त था। वे ब्रिटिश गर्वनर जनरल के दांयी ओर दसवीं कुर्सी पर बैठ कर सम्मानित होते थे।

19 अक्टूबर, 1858 को गालिब ने आगरा निवासी मित्र मुशी शीव नारायण को लिखे पत्र में अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए बड़ी रोचकता के साथ आगरा के काला महल, खटिया वाली हवेली, कटरा गउरियान आदि का उल्लेख किया। इस पत्र में उन्होंने लिखा है कि कटरे की एक छत से वो तथा दूसरे कटरे की छत से बनारस के निष्कासित राजा चेत सिंह के पुत्र बलवान सिंह पतंग उड़ाते व पेंच लड़ाते थे।

सन 1857 के गदर व उसके बाद गालिब के इतने परिचितों व मित्रों की मृत्यु हुई की रोते-रोते उनके आंसू सूख गए। तभी तो आठ सितंबर, 1858 को उन्होंने अपने मित्र हकीम अजहद्दौला नजफखां को एक खत में लिखा था कि - वल्लाह, दुआ मांगता हूं कि अब इन अहिब्बा (प्रिय) में से कोई न मरे, क्या माने के जब मैं मरूं तो मेरा याद करने वाला, मुझ पर रोने वाला भी तो कोई हो।

जीवन के 72 बसंतों में जिंदगी के हजारों रंग व उतार-चढ़ाव देखने वाले कालजयी शायर मिर्जा गालिब की 15 फरवरी, 1869 ई को दिल्ली में ब्रेन हेमरेज होने के कारण मृत्यु हो गई। मृत्यु के पश्चात उन्हें हजरत निजामुद्दीन क्षेत्र में स्थित सुसराल पक्ष के लोगों के कब्रिस्तान में दफन कर दिया गया।


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