सोरों में तर्पण तो मिलेगी पितरों को मुक्ति, जाने क्या है विशेषता तीर्थ नगरी की
24 सितंबर से आरंभ हो रहा है इस वर्ष पितृपक्ष। कासगंज के सोरों में श्राद्धों में उमड़ेगा श्रद्धा का सैलाब। भगवान वराह की जन्म और मोक्ष स्थली है सोरों, जिसे शूकर क्षेत्र भी कहा जाता है।
आगरा [श्रवण कुमार शर्मा]: पितृपक्ष सोमवार से शुरू हो रहे हैं। वंशज अपने पितरों की आत्मा शांति और मोक्ष की कामना लेकर श्राद्ध और तर्पण करेंगे। मगर, कासगंज सोरों में श्रद्धा का विशेष सैलाब उमड़ेगा। वजह ये कि सोरों को थल, जल और नभ में सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। मान्यता है कि शूकर क्षेत्र सोरों में श्राद्ध करने से तीनों लोकों में विचरण कर रही आत्मा को मोक्ष मिलता है।
सोरों के बारे में यह मान्यता सर्व विद्यमान है। भगवान वराह ने स्वयं इस क्षेत्र की पवित्रता का बखान करते हुए कहा है कि मेरे प्रभाव से इस पुण्य भूमि शूकर क्षेत्र में जो व्यक्ति अपने पूर्वजों की अस्थियों को विसर्जित करेगा, वह गंगाजल में विलीन हो जाएंगी। सोरों की पवित्र भूमि पर श्राद्ध करने से हर आत्मा को शांति मिलती है। तुलसी की इस नगरी में श्राद्ध पक्ष और हरिपदी गंगाजी पर कर्म करने से पूर्वजों को मोक्ष भी मिलता है।
क्यों है सोरों विशेष स्थान
भगवान वराह की जन्म और मोक्ष स्थली सोरों, यानि सूकर क्षेत्र श्राद्ध के निमित्त इस संसार का सर्वाधिक उत्कृष्ट स्थल है। यहां भगवान वाराह ने स्वयं अपने लीलारूप का त्याग किया है। शास्त्रों में सोरों को मोक्ष की भूमि कहा गया है।
हर तिथि रखती है है विशेष महत्व
ज्योतिषाचार्य डॉ शोनू मेहरोत्रा के अनुसार कहने को तो तो पूरा पितृपक्ष ही श्राद्ध के लिए उत्तम है, लेकिन कुछ विशेष तिथियों में श्राद्ध करना ज्यादा फलदायक माना गया है। जैसे कि प्रतिपदा को श्राद्ध करने को नानी-नाना, अविवाहित मृतक के श्राद्ध के लिए पंचमी, मां और परिवार की महिलाओं के लिए नवमी, सन्यास धारण किए हुए पितरों के लिए निमित्त एकादशी एवं द्वादशी, अकाल मृत्यु को प्राप्त प्रियजनों के लिए चतुर्दशी और सभी पितरों की शाति के लिए अमावस्या को श्राद्ध करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है।
नियम-संयम जरूरी
श्राद्ध के लिए नियम-संयम का पालन करना चाहिए। श्राद्ध में दूध, शहद, गंगाजल, तुलसीदल का बड़ा महत्व है। श्राद्ध में ब्राह्माण भोजन के अतिरिक्त गाय, श्वान, कौओं को भी भोजन देने का प्रावधान है। पंडित किशन वाजपेयी कहते हैं कि महर्षि ब्रहस्पति ने कहा है कि श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने से पितर प्रसन्न होते हैं। पितृ ऋण से मुक्ति का एकमात्र साधन है श्राद्ध। शास्त्रों मे श्राद्ध को पितृ यज्ञ के नाम से भी जाना गया है। ब्रह्मापुराण के अनुसार, श्राद्धकर्ता मनुष्य श्राद्ध कर्म करके अपने पितरों के अलावा ब्रह्मा, रुद्र, सूर्य, अग्नि, वायु, विष्णु देव को भी प्रसन्न कर लेता है। श्राद्ध में कुश का आवश्यक रूप से प्रयोग करना चाहिए। दूषित वातावरण को शुद्ध करने की विशेष क्षमता कुश में होती है। श्राद्ध में काले तिलों का प्रयोग भी जरूरी है, क्योंकि काले तिल भगवान विष्णु से उत्पन्न होते हैं ।
कनागत या श्राद्ध
सनातन संस्कृति का एक अनिवार्य पर्व महालय, जिसे सामान्य भाषा में श्राद्ध पक्ष या कनागत के नाम से जानते है। इस साल 24 सितंबर से आरंभ हो रहा है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धायाम इदम श्राद्धम, अर्थात जो कार्य श्रद्धा से किया जाए, उसे ही श्राद्ध कहते है। भारतीय संस्कृति मे माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ- ताई को देवतुल्य माना गया है। माना जाता है कि मृत्यु के उपरांत मनुष्य का स्थूल शरीर तो पंचतत्व मे विलीन हो जाता है, लेकिन सूक्ष्म शरीर किसी लोक विशेष को चला जाता है। मनुष्य अपने जीवन मे अपने शुभाशुभ कर्मो के आधार पर विष्णुलोक, ब्रह्मालोक, शिवलोक, स्वर्गलोक आदि को प्राप्त करता है। इस सूक्ष्म शरीर की यात्रा को जिस किसी भी संसाधन की आवश्यकता होती है, उसकी पूर्ति श्राद्ध के द्वारा ही होती है। यही वजह है कि श्राद्ध सनातन धर्मावलम्बियों के लिये अत्यावश्यक कर्म है। महर्षि सुमंतु ने तो श्राद्ध के अतिरिक्त किसी अन्य क्रिया को कल्याणकारी नही माना है। सिद्धांत शिरोमणि के अनुसार, जब सूर्य कन्या राशि मे आते है तो पृथ्वी लोक, सोमलोक और पितृलोक सबसे अधिक निकटता मे होते है। इसलिए इस अवधि मे अाश्विन के आरंभ से पक्ष पूर्ण होने तक महालय पर्व होता है। इस समय अपने पितरों के निमित्त शास्त्र आज्ञा से श्राद्ध करने से उन्हें प्रसन्नता होती है।
श्राद्ध का काल
श्राद्ध सदैव कुतपकाल में ही करना चाहिए। कुतपकाल में व्याप्त तिथि के आधार पर ही तिथि ग्राह्य कर श्राद्ध करने का विधान है । कुतपकाल प्रत्येक दिन लगभग 10. 40 मिनट से 12.15 तक विद्यमान
रहता है।