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    Santhara Pratha: जैन धर्म की महापवित्र प्रथा संथारा, 10 पॉइंट में समझें इस मृत्यु के महोत्सव की प्रमुख बातें

    Santhara Pratha संथारा अपने परिग्रह को कम करके आसक्तियों को धीरे-धीरे त्यागने की प्रक्रिया है। सिलीगुड़ी में एक 58 वर्षीय महिला मंजू कुंडलिया संथारा साधिका बनीं। इसके बाद से संथारा प्रथा एक बार फिर चर्चा में। जैन धर्म की महापवित्र प्रथा है संथारा।

    By Tanu GuptaEdited By: Updated: Fri, 20 May 2022 05:12 PM (IST)
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    सिलीगुड़ी में एक 58 वर्षीय महिला मंजू कुंडलिया संथारा साधिका बनीं। फोटो जागरण आर्काइव

    आगरा, तनु गुप्ता। घर में कोइ बच्चा जन्म लेता है तो पूरा घर खुशियों से चहक उठता है। हम स्वयं भी अपने जीवन काल में न जाने कितनी ही बार अपने जन्म का दिन उत्सव की तरह मनाते हैं लेकिन जैन धर्म में एक एेसी प्रथा है जहां मृत्यु को भी एक महोत्सव के रूप आत्मसात किया जाता है। इसका हाल ही का उदाहरण है सिलीगुड़ी में एक 58 वर्षीय महिला मंजू कुंडलिया संथारा साधिका बनीं। यानि उन्हाेंने अपने शांत मन से मौत का स्वागत करते हुए अन्न जल का त्याग कर संथारा प्रथा को अपनाया। इस रिपाेर्ट में आपको बताते हैं कि आखिर क्या है ये मृत्यु का महोत्सव कहे जाने वाली महापवित्र प्रथा संथारा।

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    इच्छाओं के संयम का नाम है संथारा सल्‍लेखना

    आगरा के प्रताप नगर में रहने वाले जैन धर्म के जानकार आरएस जैन बताते हैं कि संथारा नाम आते ही लोग समझ जाते हैं कि से मृत्यु से संबंधित है। बहुत से लोग संथारा को आत्म हत्या समझते हैं। जबकि ये सत्य नहीं है। आत्महत्या क्रोध और आवेश की प्रक्रिया है जबकि संथारा किसी आध्यात्मिक व्यक्ति द्वारा शांत मन से लिया गया संकल्प है। वो ये जानता है कि मृत्यु का समय नजदीक है। तो वो अंत समय में अपनी इच्छाओं को वश में करके अन्न− जल का त्याग करता है। शुरूआत में एक समय के भाेजन का भी त्याग किया जाता है। उसे पता होता है कि मृत्यु एक जीवन का अंत है तो दूसरे जीवन की शुरूआत भी है। धीरे धीरे नियमों के अनुसार इच्छाओं को सीमित करके नियम अपना लेता है। समय निर्धारित कर लेता है। आजीवन पानी न ग्रहण करने का भी संकल्प ले लेता है। जब अपनी ओर से छोड़ता है तो आत्महत्या ग्लानि या कोइ इच्छा नहीं रहती है। यदि सटिक पंक्तियां कहें तो जीने की खुशी तो हर कोई मनाता है, लेकिन मृत्यु पर महोत्सव मनाना मुश्किल है। जो मरते समय महोत्सव मनाता है, उसका मरण मिट जाता है। संथारा अपने परिग्रह को कम करके आसक्तियों को धीरे-धीरे त्यागने की प्रक्रिया है। ऐसा मरण, जिसमें आंखों में आंसू न हों।

    कैसे मिलती है संथारा की अनुमति

    जब कोई व्‍यक्ति संथारा की इच्‍छा व्‍यक्‍त करता है, तब उसके परिवार और पूरे समाज की सहमति के बाद आचार्य से इसकी अनुमति मांगी जाती है। अनुमति साधक की शारीरिक और मानसिक स्थिति देख कर ही दी जाती है। समाज 20 वर्ष के युवा को भी संथारा की अनुमति दे सकता, मगर 90 वर्ष के वृद्ध को भी इसकी अनुमति नहीं मिल सकती है।

    आगरा में आधा दर्जन से अधिक ले चुके हैं संथारा 

    आगरा ताजमहल के अलावा धार्मिक नगरी के रूप में भी प्रमुख स्थान और पहचान रखता है। यहां हर धर्म के प्रमुख स्थल हैं। जैन धर्म के तो बहुत से जैन जिनालय यहां स्थापित हैं। हर वर्ष यहां चार्तुमास में मुनि एवं साध्वी आते हैं। प्रवास भी करते हैं। संथारा प्रथा को अपनाने में आगरा के सात्विक लोग भी पीछे नहीं हैं। यहां के आधा दर्जन से अधिक लोग इस प्रथा का अनुसरण कर चुके हैं। 

    ये 10 प्रमुख बातें

    1- जैन धर्म में दो पंथ हैं, श्वेतांबर और दिगंबर। संथारा श्वेतांबरों में प्रचलित है। दिगंबर इस परंपरा को सल्लेखना कहते हैं।

    2- यह बड़ी भ्रांति है कि संथारा लेने वाले व्यक्ति का खाना-पीना जबरदस्ती बंद करा दिया जाता है या वह एकदम खाना-पीना छोड़ देता है। संथारा लेने वाला व्यक्ति स्वयं धीरे-धीरे अपना भोजन कम करता है।

    3- जैन ग्रंथों के मुताबिक, संथारा में उस व्यक्ति को नियम के मुताबिक भोजन दिया जाता है। अन्न बंद करने से मतलब उसी स्थिति से होता है, जब अन्न का पाचन संभव न रह जाए।

    4- भगवान महावीर के उपदेशानुसार जन्म की तरह मृत्यु को भी उत्सव का रूप दिया जा सकता है। संथारा लेने वाला व्यक्ति भी खुश होकर अपनी अंतिम यात्रा को सफल कर सकेगा, यही सोचकर संथारा लिया जाता है।

    5- जैन धर्म में संथारा की गिनती किसी उपवास में नहीं होती।

    6- संथारा की शुरुआत सबसे पहले सूर्योदय के बाद 48 मिनट तक उपवास से होती है, जिसमें व्यक्ति कुछ पीता भी नहीं है। इस व्रत को नौकार्थी कहा जाता है।

    7- संथारा में उपवास पानी के साथ और बिना पानी पीए, दोनों तरीकों से हो सकता है।

    8- संथारा लेने से पहले परिवार और गुरु की आज्ञा लेनी जरूरी होती है।

    9- यह स्वेच्छा से देह त्यागने की परंपरा है। जैन धर्म में इसे जीवन की अंतिम साधना माना जाता है।

    10- जैन धर्म के मुताबिक, जब तक कोई वास्तविक इलाज संभव हो, तो उस अहिंसक इलाज को कराया जाना चाहिए। संथारा के व्रत के बीच में भी व्यक्ति डॉक्टरी सलाह ले सकते हैं। इससे व्रत नहीं टूटता।