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    अंग्रेजी हुकूमत को हिलाने वाले कवि, लेखक विजयसिंह पथिक का जुनून

    By Sanjay PokhriyalEdited By:
    Updated: Mon, 18 Apr 2022 04:53 PM (IST)

    भारत सरकार ने 29 अप्रैल 1992 को क्रांतिकारी कवि विजय सिंह पथिक की स्मृति में डाक टिकट और प्रथम दिवस आवरण जारी किया था। अंग्रेजी हुकूमत को हिलाने वाले कवि लेखक विजयसिंह पथिक के जीवन पर केंद्रित आलेख...

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    क्रांतिकारी कवि विजयसिंह पथिक का जुनून। फाइल फोटो

    राजगोपाल सिंह वर्मा, आगरा। उत्तर प्रदेश 12 दिसंबर 1911 को जार्ज पंचम के दिल्ली दरबार के बाद वायसराय लार्ड हार्डिंग की दिल्ली सवारी निकल रही थी। हार्डिंग पत्नी के साथ एक हाथी पर बैठे हुए थे। जब काफिला चांदनी चौक पहुंचा तो अवसर पाते ही वायसराय पर एक बम फेंका गया, जिसके फटते ही जोरदार धमाका हुआ और वायसराय बेहोश होकर एक तरफ जा गिरे। अफरा-तफरी का लाभ उठाकर क्रांतिकारी हमलावर वहां से बच निकले। इस कांड के आरोपी रास बिहारी बोस, जोरावर सिंह, प्रताप सिंह, विजय सिंह 'पथिक' अन्य क्रांतिकारी अंग्रेजों के हाथ नहीं आए।

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    भूप सिंह गुर्जर से विजय सिंह 'पथिक' के रूप में चर्चित हुए बुलंदशहर जिले के ग्राम गुठावली कलां में 27 फरवरी 1882 को जन्मे इस क्रांतिकारी पथिक ने युवावस्था में ही रास बिहारी बोस और शचीन्द्र नाथ सान्याल आदि क्रांतिकारियों का सान्निध्य प्राप्त कर लिया था। उनके दादा इंद्र सिंह गुर्जर वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में शहीद हो गए थे, जिनके किस्सों का पथिक के किशोर मन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा था। उनकी शुरुआती शिक्षा पालगढ़ के प्राइमरी स्कूल में हुई। बाद में वह अपनी बड़ी बहन के पास इंदौर चले गए जहां उन्होंने कई भाषाओं में प्रवीणता प्राप्त की।

    सन् 1915 में रास बिहारी बोस के नेतृत्व में लाहौर में क्रांतिकारियों ने निर्णय लिया कि 21 फरवरी को देश के विभिन्न स्थानों पर 1857 की क्रांति की तर्ज पर सशस्त्र विद्रोह किया जाए। योजना यह थी कि एक तरफ भारतीय ब्रिटिश सेना को विद्रोह के लिए उकसाया जाए और दूसरी तरफ देशी राजाओं की सेनाओं का विद्रोह में सहयोग प्राप्त किया जाए। राजस्थान में इस क्रांति को संचालित करने का दायित्व विजय सिंह 'पथिक' को सौंपा गया।

    उस समय वह फिरोजपुर षड्यंत्र केस में फरार थे और खरवा (राजस्थान) में गोपाल सिंह के पास रह रहे थे। दोनों ने मिलकर दो हजार युवकों का दल और तीस हजार से अधिक बंदूकें एकत्र करने में सफलता प्राप्त की थी। वह 'अभिनव भारत समिति' के तत्वावधान में देश में सशस्त्र क्रांति की योजना बना रहे थे, लेकिन अंग्रेजों को इस षड्यंत्र का पता चल गया, जिससे उन्हें अपनी गतिविधियां रोकनी पड़ीं। देश भर में क्रांतिकारियों को समय से पूर्व पकड़ लिया गया। पथिक जी और गोपाल सिंह ने गोला बारूद भूमिगत कर दिया और सैनिकों को इधर-उधर कर दिया गया। पांच सौ सैनिकों के साथ पथिक जी और गोपाल सिंह को खरवा के जंगलों से गिरफ्तार कर लिया और टाडगढ़ के किले में नजरबंद कर दिया। तभी उन्होंने अपना नाम भूप सिंह से बदलकर विजय सिंह 'पथिक' रखा था।

    लाहौर षड्यंत्र केस में भी पथिक जी का नाम उभरा और उन्हें लाहौर ले जाने के आदेश हुए। किसी तरह यह खबर पथिक जी को मिल गई और वह टाडगढ़ के किले से फरार हो गए। गिरफ्तारी से बचने के लिए पथिक जी ने अपना वेश राजस्थानी राजपूतों जैसा बना लिया और चित्तौडग़ढ़ क्षेत्र में रहने लगे। बिजौलिया से आए एक साधु सीताराम दास उनसे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने पथिक जी को बिजौलिया आंदोलन का नेतृत्व संभालने को आमंत्रित किया। बिजौलिया उदयपुर रियासत में एक ठिकाना था। जहां पर किसानों से भारी मात्रा में मालगुजारी वसूली जाती थी और किसानों की दशा अति शोचनीय थी। पथिक जी सन् 1916 में बिजौलिया पहुंच गए और उन्होंने आंदोलन की कमान अपने हाथों में संभाल ली।

    किसानों की मुख्य मांगें भूमि कर, अधिभारों एवं बेगार से संबंधित थी। किसानों से 84 प्रकार के कर वसूले जाते थे। इसके अतिरिक्त युद्व कोष कर भी एक महत्वपूर्ण मुददा था। एक मुददा साहूकारों के किसानों के उत्पीडऩ से संबंधित भी था जो जमीदारों के सहयोग और संरक्षण से किसानों को निरंतर लूट रहे थे। उन्होंने किसानों से भूमि कर न देने का निर्णय करा लिया। किसान सन् 1917 की रूसी क्रांति की सफलता से उत्साहित थे और पथिक जी ने अपने लेखों के माध्यम से उनके बीच रूस में श्रमिकों और किसानों का शासन स्थापित होने के समाचार को खूब प्रचारित-प्रचारित किया था।

    विजय सिंह पथिक ने कानपुर से प्रकाशित गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा संपादित पत्र 'प्रताप' के माध्यम से बिजौलिया के किसान आंदोलन को समूचे देश में चर्चा का विषय बना दिया। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध क्रांतिकारी आंदोलन जोरों पर थे। महात्मा गांधी ने उस नवयुवक का जुनून देखकर कहा था, 'और लोग सिर्फ बातें करते हैं, परंतु पथिक एक सिपाही की तरह काम करता है।'

    सन् 1919 में अमृतसर कांग्रेस में पथिक जी के प्रयत्न से बाल गंगाधर तिलक ने बिजौलिया संबंधी प्रस्ताव रखा। पथिक जी ने बंबई अब मुंबई जाकर किसानों की करुण कथा गांधी जी को भी सुनाई। गांधी जी ने वचन दिया कि यदि सरकार ने न्याय नहीं किया तो वह स्वयं बिजौलिया सत्याग्रह का संचालन करेगें। पथिक जी ने बंबई यात्रा के समय गांधी जी की पहल पर यह निश्चय किया गया कि वर्धा से 'राजस्थान केसरी' नामक समाचार पत्र निकाला जाए। पत्र सारे देश में लोकप्रिय हो गया, परंतु पथिक जी का प्रबंधक वर्ग विचारधारा से मेल नहीं खाया और वह वर्धा छोड़कर अजमेर चले गए।

    वह एक अच्छे कवि, लेखक और पत्रकार थे। पथिक जी मूलत: क्रांतिकारी विचारधारा के पोषक थे जिन्होंने आजादी का संदेश आम जन तक पहुंचाने के लिए अपने लेखन की धार का सहारा लिया। ब्रिटिश काल में उन्होंने राजस्थान के अजमेर से 'नव संदेश' और 'राजस्थान संदेश' के नाम से हिंदी के समाचारपत्रों का प्रकाशन किया और लोगों को फिरंगी शासन तथा उत्पीड़क सामंत वर्ग के विरुद्ध जन-जागृति उत्पन्न करने का काम किया। 'तरुण राजस्थान' नाम के एक हिंदी साप्ताहिक में वह 'राष्ट्रीय पथिक' के नाम से अपने विचार भी व्यक्त किया करते थे।

    उनकी गांधी जी से कई मुद्दों पर असहमति थी। वह कांग्रेस और गांधी जी को यह समझने में असफल रहे कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विनाश के लिए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के साथ-साथ सामन्तवाद विरोधी संघर्ष आवश्यक है। उनके निरंतर प्रयासों से राजस्थान में किसान आंदोलन की लहर चल पड़ी थी, जिससे एकबारगी ब्रिटिश सरकार भयाक्रांत हो गई।

    कांग्रेस के असहयोग आंदोलन शुरू करने से भी ब्रिटिश सरकार को स्थिति और बिगडऩे की भी आशंका होने लगी। अंतत: सरकार ने किसानों की अनेक मांगें मानकर समझौता कर लिया। उत्पीडऩ के दोषी कारिंदों को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया, परंतु बेगू में आंदोलन उग्र होकर अनियंत्रित हो गया। तब सरकार ने पथिक जी को दोषी मानते हुए गिरफ्तार कर लिया। उन्हें पांच वर्ष की सजा सुनाई गई। पथिक जी अप्रैल 1927 में इस सजा से रिहा हुए। आरोप था कि वर्ष 1929 को लाहौर असेंबली में जो बम फेंका गया था उसे पथिक जी ने ही तैयार किया था। उनकी मुख्य पुस्तकें 'अजय मेरु', 'पथिक प्रमोद', 'जेल के पत्र' आदि हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए उनके विचारों, उनका प्रकाशन और क्रांतिकारी तरीकों को देखकर ही उन्हें राजपूताना व मध्य भारत की प्रांतीय कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। उनकी कविता की यह पंक्तियां लोगों की जुबान पर चढ़ी थीं, जिसमें उन्होंने कहा था-

    'यश वैभव सुख की चाह नहीं, परवाह नहीं जीवन न रहे,

    यदि इच्छा है तो यह है, जग में स्वेच्छाचार दमन न रहे।'

    वर्ष 1930 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया। उनकी पत्नी जानकी देवी ने ट्यूशन करके घर का खर्च चलाया। 28 मई सन् 1954 को पथिक जी की मृत्यु हुई, तब उनके पास संपत्ति के नाम पर कुछ नहीं था।