Govind dev Temple Vrindavan: सप्त देवालय में शामिल गोविंद देव मंदिर, शिल्पकला से चिढ़ औरंगजेब ने तुड़वा दी थीं चार मंजिलें
Govind dev Temple Vrindavan रंगजी मंदिर के सामने गोमाटीले पर बने गाेविंद देव मंदिर पर चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी षड्गोस्वामियों में प्रमुख रूप गोस्वामी को कालांतर में श्रीकृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ के निधि स्वरूप गोविंद देव के विग्रह प्राप्त हुए थे।
आगरा, जागरण टीम। लाल पत्थर की कालजयी कलाकृति गोविंददेव मंदिर की वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। रंगजी मंदिर के सामने गोमाटीले पर बने इस मंदिर पर चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी षड्गोस्वामियों में प्रमुख रूप गोस्वामी को कालांतर में श्रीकृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ के निधि स्वरूप गोविंद देव के विग्रह प्राप्त हुए। मंदिर का निर्माण रूप गोस्वामी से प्रेरणा लेकर सन् 1565 में जयपुर के राजा मानसिंग ने करवाया था। गोविंददेव मंदिर अष्टदल युक्त कूर्माकार योगपीठ के आधार पर 12 वर्ष में बनकर तैयार हुआ।
अंग्रेजी हकूमत में जिला कलेक्टर रहे एफएस ग्राउस ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है कि उत्तर भारत की अद्वितीय अद्भुत हिंदू मंदिर स्थापत्य कला का ये मंदिर दिव्य है। वृंदावन में इस निर्माण के साथ ही मंदिरों के निर्माण का क्रम भी शुरू हो गया था। ऐतिहासिक मान्यताओं के अनुसार सात मंजिला मंदिर की छत पर जलने वाले सवा मन घी के दीपक का प्रकाश दूर प्रांतों तक पहुंचता था। जिसकी जानकारी मुगल शासक औरंगजेब को हुई, तो सन् 1726 में उसने अपने सैनिक मंदिर ध्वस्त करने के लिए भेज दिए। औरंगजेब के सैनिकों ने सात मंजलीय मंदिर की ऊपरी चार मंजिलों को ध्वस्त कर दिया। इस दौरान ठा. गोविंददेवजू के श्रीविग्रह को जयपुर में स्थापित करवाया। जहां आज भी गोविंददेव मंदिर स्थापित है।
स्थापत्य कला
गोविंददेव मंदिर सर्वोत्तम तो है ही, हिंदू शिल्पकला का उत्तरी भारत में यह अकेला ही आदर्श है। इसकी लंबाई-चौड़ाई 100-100 फीट है। बीच में भव्य गुंबद है। चारों भुजायें नुकीलें महराबों से ढ़की हैं। दीवारों की औसत मोटाई दस फीट है। ऊपर और नीचे का भाग हिंदू शिल्पकला का आदर्श है और बीच का मुस्लिम शिल्प का। कहा जाता है कि मदिर के शिल्पकार की सहायता अकबर के प्रभाव के कुछ ईसाई पादरियों ने की थी। यह मिश्रित शिल्पकला का उत्तरी भारत में अपनी क़िस्म का एक ही नमूना है। खजुराहो के मंदिर भी इसी शिल्प के हैं। मूलभूत योजनानुसार पाँच मीनारें बनवाई गयीं थींए एक केंद्रीय गुंबद पर और चार अन्य गर्भगृह आदि, पर गर्भगृह पूरा गिरा दिया गया है। दूसरी मीनार कभी पूरी बन ही नहीं पायी। यह सामान्य विश्वास है कि औरंगज़ेब बादशाह ने इन मीनारों को गिरवा दिया था। नाभि के पश्चिम की एक ताख के नीचे एक पत्थर लगा हुआ है जिस पर संस्कृत में लंबी इबारत लिखी हुई है। इसका लेख बहुत बिगड़ा हुआ है। फिर भी इसका निर्माण संवत 1647 विक्रमी पढ़ा जा सकता है और यह भी कि रूप और सनातन के निर्देशन में बना था। भूमि से दस फीट ऊंचा लिखा है। राजा पृथ्वी सिंह जयपुर के महाराजा के पूर्वज थे। उसके सत्रह बेटे थे। उनमें से बारह को जागीरें दी गयीं थी। यह जयपुर के आमेर की बारह कोठरी कहलाती हैं। मंदिर का संस्थापक राजा मानसिंह राव पृथ्वी सिंह का पौत्र था।