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    Gopinath Temple Vrindavan: देश बंटवारे में डेरा गाजी खां से वृंदावन आए थे गोपीनाथ, लोगों ने देखें हैं ठाकुर सेवा में चमत्कार

    By Tanu GuptaEdited By:
    Updated: Tue, 24 May 2022 04:07 PM (IST)

    Gopinath Temple Vrindavan 75 वर्ष पहले सन् 1947 में पाकिस्तान बनने के बाद गोपीनाथजी 300 वर्ष बाद अपने धाम वृंदावन में उन्हीं के वंशजों द्वारा सुक्खन माता कुंज में स्थापित किए गए थे। सुक्खन माता गोस्वामी लालजी की चौथी पीढ़ी में गोस्वामी जगन्नाथ की धर्मपत्नी थीं।

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    वृंदावन के डेरा गाजी खां गोपीनाथ मंदिर में ठाकुरजी का श्रीविग्रह।

    आगरा, विपिन पाराशर। ठा. बांकेबिहारी मंदिर के समीप ही गोपीनाथजी का मंदिर जो डेरा गाजी खां गोपीनाथ मंदिर के नाम से विख्यात है। मंदिर में पुष्टीमार्गीय गोस्वामी विट्ठलनाथ प्रभु के अष्टम पोष्य पुत्र लालजी द्वारा सेवित विग्रह श्रीगोपीनाथजी का विराजित है। मंदिर जीर्णशीर्ण अवस्था में पहुंच चुका है, करीब सौ वर्ष पुराना है। करीब 75 वर्ष पहले सन् 1947 में पाकिस्तान बनने के बाद गोपीनाथजी 300 वर्ष बाद अपने धाम वृंदावन में उन्हीं के वंशजों द्वारा सुक्खन माता कुंज में स्थापित किए गए थे। सुक्खन माता गोस्वामी लालजी की चौथी पीढ़ी में गोस्वामी जगन्नाथ की धर्मपत्नी थीं। लोगों ने ठाकुर सेवा में इनके बड़े चमत्कार देखे। इस गली का नाम ही सुक्खन माता के नाम पर पड़ गया। तभी से सुक्खन माता वाली गली के नाम से गली प्रसिद्ध है।

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    मंदिर के इतिहास के बारे में संत अनुरागी महाराज ने अपने ग्रंथ ब्रजमंडल परिक्रमा में लिखा है कि गोस्वामी लालजी जिनका नाम तुलसीदास था, उनका जन्म माघ शुक्ल सप्तमी के दिन संवत् 1608 में विक्रमी में कौशल लालरी उपगोत्रीय सारस्वत ब्राह्मण कुल में सिंध प्रांत के लरकाना क्षेत्र सेवन ग्रामव में हुआ था। माता पिता के चले जाने के बाद सवत् 1625 में विक्रमी 17 वर्ष की आयु में ये ब्रज यात्रा पर आए और गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के शिष्य बन गए। गोस्वामी जी पुत्रवत व्यवहार करते थे और उन्हें जल घड़िया की सेवा सौंपी। नित्य प्रति गोवर्धन से मथुरा विश्राम घाट यमुना जल लेने आना और जल लेकर गोवर्धन वापस जाना, यह लालजी की दैनिक सेवा थी। अखंड 12 वर्ष तक यमुना जल ढोते-ढोते सिर पर घाव हो गए। भाव साधना में डूबे रहने से देहाध्यास विस्मृत सा बना रहता था। सेवा करते करते लालजी सिद्ध हो चुके थे। ऐसे में जब कोई पीढ़ा होती तो सहन करते।

    उल्लेख है कि वल्लभाचार्य महाप्रभु के कनिष्ठ पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ को अधिकार प्राप्त होने के बाद संप्रदाय की नवीन व्यवस्था की गई। उसी समय अपने सात पुत्रों को सात पीठों पर जब भगवत विग्रह देकर स्थापना की तो अपने पौष्य पुत्र तुलसीदास उर्फ लालजी को गोपीनाथ विग्रह देकर अष्टम् पीठ का अधिकारी बनाया।

    गोस्वामी विट्ठलनाथ अपने पुत्रों को लालजी कहकर पुकारते थे। अत: तुलसीदास उनमें लालजी के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुए। उन्हें पश्चिमांचल में प्रचार की जिम्मेदारी सौंपी गई। तो लालजी ने विट्ठलनाथजी के बड़े पुत्र गोकुलेशजी से ब्रह्मसस मंत्र लिया। अष्टयाम लीला, वैष्णवाचार सेवा, श्रीमद्भागवत एवं संप्रदाय प्रणाली का उचित अध्ययन किया। उन्हें बंटवारे के समय गोस्वामीजी ने भाद्रपद कृष्ण पक्ष 11 संवत् 1640 को गोपीनाथजी की सेवा सौं दी। पश्चिम देशों में भक्ति प्रचार का आदेश दिया। इस प्रकार अखंड 15 वर्ष ब्रजवास कर 33 वर्ष की आयु में सिर पर गोपीनाथजी को रखकर वे चल दिए और पहला विश्राम पानीपत में किया।

    आगे चलकर कुरक्षेत्र और फिर लाहौर पहुचंकर विश्राम किया। कुछ दिन गोपीनाथजी का स्वप्नादेश यहीं पीठ स्थापित करने का हुआ और लालजी ने वहीं पीठ की स्थापना कर ली। सिंधु नदी तट पर एक टीले पर ऊंचा स्थान देखकर यहीं ठाकुर सेवा करने लगे। लालजी की जीवन लीला समाप्त होने के बाद सेवापूजा विधिविधान पूर्वक चलती रही और जब देश का बंटवारा हुआ तो लालजी के वंशजों ने डेरा गाजी खां से श्रीविग्रह को लाकर वृंदावन में स्थापित कर दिया। आज यहां विधिविधान पूर्वक गोपीनाथजी की सेवा पूजा हो रही है।