मातृभाषा दिवस: दाखिले की दौड़ में पिछड़ी मातृभाषा की ललक, ये बनी बड़ी वजह Agra News
कॉन्वेंट में दाखिला बना स्टेटस सिंबल। हिंदी लगी दांव पर। हिंदी से ज्यादा रहता है अंग्रेजी सिखाने पर जोर।
आगरा, संदीप शर्मा। यह सिर्फ एक या दो घरों की नहीं, हर उस घर की कहानी है, जिनके बच्चे आने वाले समय में स्कूल जाने की तैयारी में हैं। लिहाजा घर के सभी सदस्य बच्चों से ज्यादातर अंग्रेजी में बात करते हैं। या कहें, तो घर में उन्हें कुछ इसी तरह की ट्रेनिंग दी जा रही है। कारण नौनिहाल को अच्छे कॉन्वेंट स्कूल में प्रवेश जो दिलाना है और इन स्कूलों में प्रवेश की पहली प्राथमिकता अंग्रेजी ही है। लिहाजा मां मॉम बन चुकी हैं और पापा पॉप्स। इन हालातों में अब मध्यम वर्ग के घरों में भी मातृभाषा हिंदी सिसकती दिखाई देती है।
दरअसल कॉन्वेंट स्कूल में बच्चे का प्रवेश समाज में स्टेटस सिंबल बन चुका है। इसलिए बच्चे को प्रवेश दिलाने की तैयारी तभी शुरू कर दी जाती है, जब वह बड़ों की बातें समझने लगता है। बोलने की शुरूआत होते ही सभी का ध्यान इस बात में लग जाता है कि वह मातृभाषा हंिदूी से ज्यादा अंग्रेजी के शब्द सीखे और बोले, क्योंकि अंग्रेजी नहीं सीख पाए, तो दाखिले की रेस में पिछड़ जाएगा। रटने की इस रेस में अंग्रेजी सीखकर बच्चा भले जीत जाए, लेकिन इससे मातृभाषा लगातार पिछड़ती जा रही है।
केस वन:
नो, नो, बेटा। डोंट टॉक इन हिंदी, डोंट विहेव लाइक दिस, टॉक टू मी ओन्ली इन इंग्लिश। राजपुर चुंगी निवासी निवासी गौरव कौशिक और रचना कौशिक अपने तीन वर्षीय बेटे से ऐसे ही बात करते हैं। कारण अगले साल उसे स्कूल भेजना है, कोशिश कॉन्वेंट स्कूल में प्रवेश की है। लिहाजा घर में ऐसा माहौल बना दिया गया है कि वे ज्यादातर अंग्रेजी शब्दों का ही प्रयोग करे। ऐसे में दादा-दादी को भी बच्चे से इंग्लिश में ही बात करनी पड़ती है।
केस टू:
नो, नो, केला नहीं बनाना, सेब नहीं एप्पल। कृष्णा कॉलोनी निवासी सुनील गौतम और प्रीति गौतम भी अपने डेढ़ वर्षीय बेटे दाऊ को ऐसे ही ट्रेंड कर रहे हैं। दो साल बाद स्कूल जाना है, प्राथमिकता कॉन्वेंट स्कूल ही है। लिहाजा अभी से उसे अंग्रेजी शब्दों से रूबरू करा रहे हैं। जबकि दाऊ के दादा ग्रामीण परिवेश से होने के कारण कभी-कभी बच्चे के सामने थोड़ा असहज हो जाते हैं।
मजबूरी है अंग्रेजी
दयालबाग निवासी अनूप चौधरी बताते हैं हम खुद सरकारी स्कूलों में पढ़ें, लेकिन अब समय बदल गया है। बच्चों का भविष्य बनाना है, तो कॉन्वेंट या पब्लिक स्कूल में प्रवेश दिलाना ही होगा। प्रवेश की पहली प्राथमिकता अंग्रेजी ही है, ऐसे में राजी-राजी, गैर-राजी अंग्रेजी सीखना मजबूरी बन चुकी है।
शिक्षा प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है मातृ भाषा
मातृ भाषा, शिक्षा प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। मगर, अब अंग्रेजी का बोलबाला होने लगा है। गुरुवार को मातृ भाषा दिवस पर आंबेडकर विवि के सेठ पदम चंद्र जैन संस्थान और केएमआइ में गोष्ठी और वाद विवाद प्रतियोगिता आयोजित की गई।
सेठ पदम चंद्र जैन संस्थान में आयोजित वाद विवाद प्रतियोगिता में प्रतिभागियों ने कहा कि ज्ञान की प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ माध्यम मातृ भाषा ही होती है। हिंदी वैज्ञानिक भाषा है जो लिखने और बोलने में एक जैसी है। मातृ भाषा के माध्यम से ही व्यक्ति अपनी भावनाओं को साझा कर सकता है। निदेशक प्रो. ब्रजेश रावत ने कहा कि मातृ भाषा का सम्मान करना चाहिए। डॉ. श्वेता चौधरी ने कहा कि भारत सांस्कृतिक और भाषाई विविधता का देश है, 1652 बोलियां हैं। वाद विवाद प्रतियोगिता में प्रथम स्थान आदित्य गौर, दूसरे स्थान पर महक चुग रहीं। वहीं तीसरे स्थान पर सत्यम, महक अग्रवाल, दिव्या और अंकित वाष्ण्रेय रहे। डॉ. अतुल माथुर, डॉ. योगेंद्र कुमार शर्मा, डॉ. स्वाती माथुर, डॉ. रूचिरा प्रसाद आदि मौजूद रहे। केएमआइ के भाषविज्ञान विभाग द्वारा आयोजित गोष्ठी में निदेशक प्रो. प्रदीप श्रीधर ने कहा कि मातृ भाषा में ही अनुभूति की प्रथम सार्थक अभिव्यक्ति होती है। डॉ. रवि किरन टंडन ने कहा कि मातृ भाषा के माध्यम से ही विकास कर सकते हैं। कार्यवाहक कुलसचिव डॉ. राजीव कुमार ने कहा कि मातृ भाषा विचारों को साकार रूप प्रदान करती है। प्रो. हरिवंश सिंह, डॉ. राजेंद्र दवे, डॉ. अजय शर्मा, डॉ. रीतेश कुमार, डॉ. अमित कुमार सिंह आदि मौजूद रहे।
अपनी हस्ती खो रहे हैं हम
राजपुर चुंगी निवासी अशोक कौशिक मानते हैं कि हिंदी की स्थिति के लिए हम सभी जिम्मेदार हैं। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं रही, तो उसे सुधारने की जगह हम प्राइवेट और कॉन्वेंट की तरफ भाग रहे हैं। ऐसे में वहां हिंदी तो सीख रहे हैं लेकिन दांव पर हिंदी और संस्कार लगे हैं।