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    खेती के लिए मुसीबत बन चुकी गाजर घास, अमेरिका के गेहूं के साथ आ पहुंची थी भारत

    By Prateek GuptaEdited By:
    Updated: Tue, 23 Aug 2022 10:38 AM (IST)

    भारत में इसे चटक चांदनी कांग्रेस घास गांधी टोपी और कड़वी घास आदि नामों से भी जाना जाता है। यह एक बहुशाखित वार्षिक सीधा खड़ा रहने वाला खरपतवार पौधा है। फसल के साथ यह खरपतवार मनुष्यों और पशुओं के लिए भी घातक है।

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    कृषि विज्ञान केंद्र बिचपुरी के छात्र छात्राएं गाजर घास उखाड़ते हुए।

    आगरा, जागरण संवाददाता। अमेरिका से 72 साल पहले आयात किए गए गेहूं के साथ एक आफत भी भारत आ पहुंची थी, जिसका खात्मा अभी तक नहीं हो पाया है। ये है गाजर घास, जिसके और भी कई और भी नाम हैं। इसे नियंत्रित जरूर किया जा सकता है। पूरे देशभर में किसान इस समस्या से जूझ रहे हैं। ये एकदम तेजी से बढ़ने वाला खरपतवार है। कृषि वैज्ञानिक इससे बचाव के उपाय बताते हैं। आगरा के बिचपुरी में स्थित कृषि विज्ञान केंद्र पर 16 से 22 अगस्त तक गाजर घास जागरूकता सप्ताह मनाया गया। यह पूरे देश में मनाए जाने वाला जागरूकता सप्ताह है या कह सकते हैं कि, कृषि, मनुष्य, पशु, पर्यावरण एवं जैव विविधता के लिए खतरनाक खरपतवार के प्रति देश के किसानों व आमजन को जागरूक करना है।

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    क्या है गाजर घास

    पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस यानी गाजर घास का प्रवेश भारत में सन् 1950 में अमेरिका से आयात किये गये गेहूं के साथ हुआ। यह एक बहुशाखित, वार्षिक, सीधा खड़ा रहने वाला खरपतवार पौधा है। अपने विकास के प्रारंभिक चरण के दौरान पत्तियों का एक बेसल रोसेट बनाता है। यह आमतौर पर 0.5-1.5 मीटर तक लंबा होता है, लेकिन कभी-कभी यह दो मीटर या उससे अधिक तक पहुंच जाता है। भारत में इसे चटक चांदनी, कांग्रेस घास, गांधी टोपी और कड़वी घास आदि नामों से भी जाना जाता है।

    20 से ज्यादा प्रजाति

    कृषि वैज्ञानिक डा. राजेंद्र सिंह चौहान ने बताया इस खरपतवार की लगभग 20 प्रजातियां पूरे विश्व में फैली हैं। मूलतः यह मेक्सिको, दक्षिण अमेरिका और कैरिबियन का निवासी है। लेकिन गत शताब्दी में इसने अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, एशिया और प्रशांत द्वीप समूह के लिए अपना रास्ता खोज लिया और अब यह दुनिया के सात सबसे विनाशकारी और खतरनाक खरपतवारों में से एक है। हमारे देश में इसे परित्यक्त भूमि, गांव-कस्बों के आसपास, खेतों, खेत की मेड़ों, आवासीय कॉलोनियों, रेलवे ट्रैक, सड़कों, जल निकासी और सिंचाई नहरों आदि पर भारी मात्रा में उगते हुए देखा जा सकता है। अपनी उच्च उर्वरक क्षमता के कारण एक पौधा 10,000 से 15,000 भार में हल्के सुषुप्तता रहित बीज पैदा करता है। बीज अत्यधिक सूक्ष्म होते हैं, जो अपनी दो स्पंजी गद्द्यिों की मदद से हवा तथा पानी द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से उड़ कर फैल जाते हैं।

    छात्र छात्राओं को गाजर घास नियंत्रण की जानकारी देते डा. आरएस चौहान। 

    मनुष्यों, पशुओं के साथ-साथ फसलों के लिये खतरा

    यह खरपतवार जितना पशुओं के लिए खतरनाक है, उतना ही मनुष्यों के लिए भी। यह मनुष्यों एवं पशुओं में कई स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न करता है। इस खरपतवार के लगातार संर्पक में आने पर मनुष्यों में डरमेटाइटिस, एक्जिमा, एलर्जी, बुखार, दमा, श्वसन तंत्र में संक्रमण, गले में छाले, दस्त, मूत्र पथ के संक्रमण, पेचिश आदि की बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं। दुधारू पशुओं के दूध में कड़वाहट, खुजली, बालों का झड़ना, लार गिरना, अतिसार, मुंह व आंतों में छाले अधिक मात्रा चर लेने से उनकी मृत्यु भी हो सकती है।

    नियंत्रण

    डा. राजेंद्र सिंह चौहान के मुताबिक इसकी रोकथाम के लिए गैर कृषि क्षेत्रों में पौधे पर फूल आने से पूर्व शाकनाशी रसायन एट्राजिन 50 प्रतिशत डब्लूपी 1.5 किग्रा. या ग्लायफोसेट 71 प्रतिशत डब्लूजी 2 किग्रा या मैट्रीब्यूजिन 70 प्रतिशत डब्लूपी 2 किग्रा. प्रति हैक्टेयर में किया जाना चाहिए। फसल जैसे मक्का, ज्वार, बाजरा में एट्राजिन 50 प्रतिशत डब्लूपी 1 से 1.5 किग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हैक्टेयर बुवाई के तुरंत बाद (अंकुरण से पूर्व) प्रयोग किया जाना चाहिए।

    सामान्यतः काटने, उखाड़ने या खरपतवारनाशीयों के प्रयोग से इसका नियंत्रण कठिन होता है। अतः जाइगोग्रामा बाइक्लोराटा गुुबरैले (बीटल) द्वारा इसका जैवकीय नियंत्रण सफलता से किया जा सकता है। इस गुुबरैले को लाने का श्रेय भारतीय शस्य विज्ञान संस्थान, बैंगलौर के डॉ0 के.पी. जयनाथ को जाता है जिन्होंने इसे मैक्सिको से मंगा कर 1984 में बैंगलोर में गाजर घास पर छोड़ा था। यह बीटल कत्थई रंग का पंखयुक्त कीट है, इसके शरीर पर गहरे कत्थई रंग की रेखायें होती हैं। इस बीटल में प्रजनन की अद्भुत क्षमता होती है, मादा अपने 129 दिन के जीवनकाल में 1500-2500 तक अण्डे देती है। इसे आसानी से बेकार पड़े टीन, प्लास्टिक डिब्बों, जालीदार पिंजरों व मच्छरदानी में पाला जा सकता है। यह किसी भी अन्य फसल, मनुष्य व पशुओं को यह कोई हानि नहीं पहुंचाता है। आज यह कीट भारत के 2 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैलकर गाजर घास का भक्षण कर रहा है।

    केवीके में चला अभियान

    कृषि विज्ञान केंद्र में चले अभियान के दौरान बताया गया कि देश में इस खरपतवार से नैनो-मेडिसिन की संभावना में कुछ प्रारंभिक सफलता को अंजाम दिया जा रहा है। इसी प्रकार पर्यावरण से भारी धातुओं, जलीय खरपतवारों का उन्मूलन, वाणिज्यिक एंजाइम उत्पादन, बायोगैस, मवेशी खाद में एडिटिब्स, बायोपेस्टीसाइड, हरी खाद आदि में इसके खतरनाक गुणों से सक्रिय यौगिकों को तैयार करने में वैज्ञानिक जुटे हैं। गाजर घास जागरूकता सप्ताह में केंद्र के डॉ संदीप सिंह, धर्मेंद्र सिंह, दीप्ति सिंह, शिवम् प्रकाश, अनुपम दुबे, अजीत कुमार, डॉ कप्तान सिंह, पवन कुमार, डुगेंद्र प्रताप सिंह, संदीप अग्रवाल, अंजलि अग्रवाल आदि का रहा।