दिमाग से हटाना होगा 'जातिवाद'
जातिवाद, यह कोई शब्द नहीं बल्कि जहर भरी विचारधारा है, जिसे अपने दिमाग से हटाना होगा। अपने देश में लोगों को बचपन से ही जातिवाद की घुंट्टी पिलाई जाती है। आपस का यही बैर, विकास में रोड़ा है। राजनीतिक ताकतें इसे फिर से हवा देने की फिराक में हैं, जो बड़ा खतरा है। हैरत यह है कि हम पढ़ लिख कर भी जातीयता की द्वेषपूर्ण भावना से मुक्ति नहीं पा सके हैं। समाज में समरसता का भाव पैदा करना है तो नजरिया बदलना ही होगा।
जागरण विमर्श
अशोक कुमार सिंह, आगरा: जातिवाद, यह कोई शब्द नहीं बल्कि जहर भरी विचारधारा है, जिसे अपने दिमाग से हटाना होगा। अपने देश में लोगों को बचपन से ही जातिवाद की घुंट्टी पिलाई जाती है। आपस का यही बैर, विकास में रोड़ा है। राजनीतिक ताकतें इसे फिर से हवा देने की फिराक में हैं, जो बड़ा खतरा है। हैरत यह है कि हम पढ़ लिख कर भी जातीयता की द्वेषपूर्ण भावना से मुक्ति नहीं पा सके हैं। समाज में समरसता का भाव पैदा करना है तो नजरिया बदलना ही होगा।
ये विचार आंबेडकर विवि के समाज विज्ञान संस्थान में समाज कार्य के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. बीएल गुप्ता ने जागरण विमर्श में 'भारतीय राजनीति में जातिवाद क्या फिर सिर उठा रहा है', विषय पर बोलते हुए व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि भारत में जाति, धर्म से निकली है। वर्ण व्यवस्था वैदिक काल से है। देश की आजादी के इतने सालों बाद भी जातिवाद को हवा दी जा रही है।
राजनीति के केंद्र में नागरिक नहीं जाति
दुर्भाग्य की बात है कि राजनीतिक जीवन में जाति व्यवस्था स्थितियों का निर्धारण करती है। आज भी भारतीय लोकतंत्र की मुख्य धुरी नागरिक नहीं बल्कि जाति ही है। व्यक्ति का सामाजिक दर्जा उसकी योग्यता पर आधारित नहीं है। देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू भी जाति के आधार पर टिकट बांटते थे। किस चुनाव क्षेत्र में किस जाति की संख्या कितनी है, उसी आधार पर टिकट दिया जाता था। यह व्यवस्था बदस्तूर आज भी जारी है।
डा. बीएल गुप्ता ने भीमा कोरे गांव की घटना का जिक्र करते हुए कहा कि 2010-2011 के बाद एक बार फिर से जातिवाद की राजनीति को उछाला गया है। इसके लिए एक नहीं सभी राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं, जो जातिगत राजनीति का फायदा उठाना चाहते हैं। गुजरात चुनाव में जो कुछ हुआ है, वह देश के लिए खतरे की घंटी है। क्या हम जाति युद्ध की तरफ बढ़ रहे हैं। कहीं समाज में जातिवाद की खाई और चौड़ी न हो जाए। जातिवाद सार्वजनिक जीवन से समाप्त नहीं हुआ, बल्कि वास्तव में इसकी पैठ और अधिक मजबूत हुई है। भारतीय संविधान ने अस्पर्शयता को गैरकानूनी घोषित किया लेकिन यह मिटी नहीं। यही कारण है कि समाज का काफी बड़ा हिस्सा मानवाधिकार से वंचित है।
यह सही है कि न तो अस्पर्शयता मिटी है और न ही जाति की चेतना कम हुई है। इसके लिए समाज व्यवस्था पर हावी उच्चवर्णीय चरित्र तो जिम्मेदार है ही लेकिन सहूलियतों से पनपा दलित विशिष्ट वर्ग भी कम जिम्मेदार नहीं है। यह विशिष्ट वर्ग अपनी अगली पीढि़यों को अन्य वर्गो के साथ बराबरी के स्तर पर प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार नहीं करता। इसके साथ ही सामाजिक ऊंच-नीच की सीढ़ी पर दलितों में से भी दलित, निर्धन और संख्या के लिहाज से कमजोर छोटी जातियों की उन्नति में बाधा आ रही है।
जातिवाद का प्रभाव राज्य स्तर की राजनीति पर भी
कोई भी ऐसा राज्य नहीं है, जहां की राजनीति जातिवाद से प्रभावित न हो। कुछ राज्यों में आगामी चुनावों में जातिवादी राजनीति के और सिर उठाने की आशंका है। एक राज्य के मुख्यमंत्री तो अपनी जाति के समर्थन में खुल कर काम करते हैं। जातिवाद देश, समाज और राजनीति के लिए बाधक है।
जातियों के आधार पर संगठित है भारत
भारत की जनता जातियों के आधार पर संगठित है इसलिए न चाहते हुए भी राजनीति को जाति संस्था का उपयोग करना पड़ता है। आरक्षण पर भी पार्टियां राजनीति के हिसाब से अपना रुख तय करती हैं।
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