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    कबीर यह संसार है, जैसे सैमल फूल...

    Updated: Sat, 20 Sep 2025 09:08 PM (IST)

    आगरा के जनकपुरी में धार्मिक आयोजन के दौरान मर्यादाओं का उल्लंघन हुआ। मंच पर व्यक्तिगत गुणगान और अहंकार का बोलबाला रहा जिससे कड़वाहट फैल गई। वीआईपी पासों के वितरण में भी अव्यवस्था रही जिससे दानदाताओं को धक्का लगा। राजा दशरथ को भोज का निमंत्रण ठीक से न मिलने पर वे नाराज हो गए। मंच पर जूते पहनकर आरती करने से भी आस्था को ठेस पहुंची।

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    बाउंसरों के साथ खड़े होकर मीडिया कर्मियों को मंच पर कवरेज करने के लिए जाने से रोकते पार्षद प्रदीप अग्रवाल।

    अवधेश महेश्वरी, आगरा। नदार, सज्जा क्या खूब है। देवलोक की भव्यता है। आनंद रस बरस रहा है। जनकपुरी की सुंदरता को देखकर यही स्वत: यही शब्द निकलते हैं। परंतु कबीर ने कहा था- कबीर यह संसार है जैसे सेमल फूल, दिन दस के व्यवहार में झूठे रंग न भूल। ़

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    जनकपुरी में भी इस बार जो हुआ है, वह सुखद नहीं दुखद है। बेहतरीन धार्मिक आयोजन के मंच पर राजनीति तो कई बार हावी रही है लेकिन अबकी बार जो हुआ, उससे मर्यादा पुरुषोत्तम से जुड़े आयोजन में ही सारी मर्यादाएं टूटती दिखीं। मंच पर बोल शुरू होने के साथ ही व्यक्तिगत गुणगान और “मैं” के अहंकार का जो दौर शुरू हुआ, उसने चारों ओर कड़वाहट बिखेर दी।

    एक माननीय के इर्द-गिर्द की मंडली जनकपुरी पर ऐसे काले बादल बनी कि वहां राम से ज्यादा उनका गुणगान हुआ। वक्ताओं ने तो यहां तक कह दिया कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से कह दिया गया है कि माननीय यहां से जनकपुरी तक हिलेंगे नहीं। जैसे-जैसे मंच पर रोशनी बढ़ती गई, अव्यवस्थाओं का अंधकार वैसे-वैसे स्याह होता गया। इसके बड़े जिम्मेदार चौकड़ी के दो चंपू रहे।

    भव्य आयोजन के लिए जब धनराशि एकत्रित करने की बारी आई थी तो दोनों ने पैर पीछे खींच लिए। सफल आयोजन कराने की जिम्मेदारी लेकर आने वाले जनकपुरी समिति के एक पदाधिकारी ने पसीन बहा इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया। जब मंच की बारी आई, तब उनको किनारे कर दिया गया।

    जनकपुरी में इतने ज्यादा वीआइपी पास अपनों को बांट दिए गए कि सबको समाहित करना तो संभव ही नहीं था। ऐसे में जो बेहतर सहयोग राशि देकर वीआइपी पास ले सके थे, उनको धक्के मिलने ही थे। मंच पर बरात लेकर पहुंचे राजा को पहले दिन शिकायत रही कि उनको ठीक जगह नहीं दी गई, समधी ने जगह कब्जा कर ली।

    अगले दिन बढ़हार के भोज पर तो रार मैदान में हो गई। राजा दशरथ अपने समधी के यहां भोज पर ही नहीं पहुंचे। शिकायत थी कि उनको आमंत्रण ही ठीक से नहीं मिला। यह चूक निश्चित रूप से साधारण नहीं है। यह हुई तो क्यों? भले ही यह कहकर छोड़ने की कोशिश की जाए कि रामलीला के पात्र हैं लेकिन यह उचित नहीं।

    जब किसी आयोजन में भूमिका की अदाकारी करनी होती है तो वह सर्वोच्च कला और मान्यताओं के सहारे होती है। उस पात्र के अभिनय में दम भी तभी दिखाई देता है। यही वजह है कि कलाकार लंबे समय तक मंच के पीछे अभ्यास करते हैं। जनकपुरी आयोजन मंच में जब सब अवधपुरी के चारों बालक विराजते हैं तो, आस्था ऐसी होती है कि उन्हें भगवान के स्वरूप के रूप में ही पूजा जाता है।

    ऐसे में मंच पर जूता पहनकर आरती करना भी क्षम्य की श्रेणी में नहीं है। आखिर व्यवस्थापक क्या देख रहे थे। सम्मान की सीमाएं और भी टूटीं। रामलीला कमेटी के अध्यक्ष को भी राजनीतिक कारणों से किनारे ही रखा गया। वह भी मुंह न खोल सके होंगे, तो कुछ मजबूरियां रही होंगी।

    परंतु यह सबको सोचना चाहिए, पद तो लिए जा सकते हैं लेकिन संस्कार होना बहुत महत्वपूर्ण है, इनकी ही कमी दिखी। चलते-चलते: बताया गया है कि दो राजाओं में से एक के घर में भोज के दौरान रार हो गई। एक संबंधी कहने लगे कि दिमाग सातवें आसमान पर हैं।

    यहां तक बोल दिया कि आयोजन हो जाने दो, सारा जोश उतारता हूं। भाई, क्या आप फूफा जी तो नहीं हैं, जो ऐसे आयोजनों में कोप भवन में अक्सर जाते थे। अब नई पीढ़ी में ऐसा गुस्सा सहन नहीं होता। यदि बचाव रखना है तो मुंह न फुलाइए।