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    कामरूप की कामाख्या गुवाहाटी

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    आज का गुवाहाटी भले ही एक आधुनिक शहर है किंतु इसकी बुनियाद एक प्राचीन शहर पर है। हर शहर की तरह गुवाहाटी भी अलग मिजाज का शहर है। पूरब में होने के कारण यह यदि जल्दी जाग जाता है तो जल्दी सो भी जाता है।

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    हर शहर की तरह गुवाहाटी भी अलग मिजाज का शहर है। पूरब में होने के कारण यह यदि जल्दी जाग जाता है तो जल्दी सो भी जाता है। पहली बार पश्चिम भारत से गया व्यक्ति दिन की रोशनी व घडि़यों की सुइयों को देख गुमराह जरूर हो जाए। दिसंबर में शाम साढ़े चार बजे से यहां पर अंधेरा घिर आता है तो वहीं गर्मियों में सवेरे चार बजे से ही रोशनी छाने लगती है। शेष भारत जब गर्मी के दौर से जूझ रहा होता है उस समय पूर्वोत्तर भारत में बरसात का दौर आरंभ हो जाता जिसका आभास शहर से लगी ब्रह्मपुत्र नदी को देखकर हो जाता है जो मई-जून के महीने में ही रौद्र रूप ले चुकी होती है। गुवाहाटी राज्य की राजधानी है और पूर्वोत्तर का सबसे बड़ा व्यावसायिक नगर। धर्मावलम्बियों व तन्त्र साधकों के लिए गुवाहाटी कामाख्या की धरती है। पूर्वोत्तर व शेष भारत के लिये गुवाहाटी प्रवेश द्वार जैसा है। लेकिन प्रकृति की नियामतों व अन्य आकर्षणों के बावजूद गुवाहाटी के पर्यटन पक्ष की कम चर्चा होती है।

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    हर शहर की स्थापना व उसके नाम के पीछे एक इतिहास होता है सो गुवाहाटी का भी है। इसका प्राचीन नाम प्रागज्योतिषपुर था किन्तु आज इसका प्रचलित नाम गुवाहाटी हैं। इसका यह नाम यहां पर गुवा (सुपारी) की हाट होने से पड़ा। कालांतर में गुवा हाटी गुवाहाटी हो गया। सन् 1826 में जब अंग्रेजों ने असम पर अधिपत्य किया तो वे अपनी सुविधा के लिए गुवाहाटी को गौहाटी कहने व लिखने लगे, इससे इसका प्रचलित नाम गौहाटी हो गया। लेकिन जब देश में शहरों को उनके पुराने नाम लौटाने की बयार चली तो गौहाटी को फिर से गुवाहाटी कर दिया गया। एक समय पर इस कामरूप क्षेत्र में वर्मन राजाओं का शासन था उसके बाद पाल राजाओं का शासन रहा। 13वीं शती में कामरूप के पूर्वी भाग पर अहोम राजाओं ने अधिपत्य किया तो पश्चिमी भाग पर कोच सत्ता काबिज हुई। अहोम शासक राजधानी को प्रागज्योतिषपुर से हटाकर शिवसागर ले गए जिससे प्राचीन राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर नेपथ्य में चली गई। अंग्रेजों के नियन्त्रण करने तक यहां पर अहोम राजाओं व सरदारों का ही शासन था। ब्रिटिश हुकमत ने असम को नियन्त्रण में लेने के बाद इसे एक अलग राज्य का दर्जा दिया लेकिन राजधानी शिलांग रही। कालान्तर में मेघालय जब अलग राज्य बना तो जाकर गुवाहाटी स्वतन्त्र रूप में असम की राजधानी के रूप में विकसित होने लगी। आज राजधानी क्षेत्र गुवाहाटी के दिसपुर में है।

    किसी को गुवाहाटी यदि पसंद आता है तो वह उसकी भौगोलिक बनावट के कारण। इसके बीच-बीच में पहाडि़यां है तो दूसरी ओर करीब से गुजरती विशाल ब्रह्मपुत्र है। इसके दक्षिण में मेघालय का पठार है। भारत में च्यादातर नदियों को देवी, माता या पुत्री का स्थान मिला है वहीं ब्रह्मपुत्र का पुत्र का दर्जा है। ब्रह्मपुत्र भारत की उन चंद नदियों में से एक है जिनका प्रवाह पूरब से पश्चिम की ओर है, नर्मदा की तरह। असम वन्य जन्तुओं के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है। राच्य में अनेकों राष्ट्रीय पार्क, अभयारण्य व बायोस्फीयर है। गुवाहाटी की 200 किमी परिधि में दो विश्व प्रसिद्ध पार्क काजीरंगा व मानस हैं। इनमें काजीरंगा एक सींग वाले गैंडे के लिए प्रसिद्ध है तो मानस शेरों सहित अन्य जन्तुओं के लिए प्रसिद्ध हैं। ये दोनों स्थल यूनेस्को की विश्व विरासत की सूची में हैं। वन्य प्रणियों में रुचि लेने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों का यहां तांता लगा होता है। हालांकि पक्षियों की अठखेलियों को देखने के लिए गुवाहाटी से च्यादा दूर नहीं जाना होता है। नगर के पश्चिम में डिपोर बील नम क्षेत्र में शीतकाल में प्रवासी पक्षी बड़ी संख्या में जुटते है। हालांकि इस बील का क्षेत्रफल बहुत अधिक नहीं है किन्तु इसकी विशिष्टता के कारण इसे विश्वस्तर की रामसर मानक मान्यता मिली है। गुवाहाटी की एक पहचान वहां के कामाख्या धाम से है जो नगर के पश्चिम में नीलांचल की पहाड़ी पर स्थित है। कामाख्या धाम भारत के 51 शक्तिपीठों व तन्त्र साधना के तीन पीठों में से एक है। पुरातात्विक दृष्टि से यह मन्दिर लगभग 700 साल पुराना है। इसे वर्मन राजाओं के द्वारा पुराने मन्दिर के स्थान पर बनवाया गया।

    कामाख्या मन्दिर में साल भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। इसके समीप अनेक मंदिर हैं जिसका अपना अलग महत्व है। कामाख्या से गुवाहाटी शहर का कोई न कोई दृश्य दिखाई देगा। हांलाकि नगर की अन्य पहाडि़यों, जैसे कि चित्रंाचल से भी गुवाहाटी के दूसरे भाग का नजारा देखा जा सकता है। नीलंाचल के शिखर से गुवाहाटी के पश्चिमी क्ष्ेात्र के चारों ओर का नजारा दिखता है। कामाख्या धाम के अलावा गुवाहाटी में वशिष्ठ आश्रम, नवग्रह मन्दिर भी प्रमुख दर्शनीय हैं।

    गुवाहाटी का एक प्रमुख आकर्षण शंकर गुरु कला क्षेत्र है। 14वीं-15वीं शती में हुए संत शंकर गुरु ने असम में तब वैष्णव मत का प्रचार-प्रसार कर हिन्दू धर्म को मजबूती प्रदान की जब असम का राजनीतिक, संास्कृतिक व सामाजिक ढांचा चरमरा कर रह गया था। पंजाबाड़ी में उनके नाम से स्थापित यह कला क्षेत्र 10 हैक्टेयर भूमि पर फैला है। इसमें असमिया संग्रहालय, साहित्य भवन, मुक्ताकाश थियेटर, चित्र वीथिका आदि है। इसमें निरन्तर सांस्कृतिक गतिविधियां चलती रहती हैं।

    पल्टन बाजार, पान बाजार व फैन्सी बाजार नगर के तीन प्रमुख पारंपरिक बाजार हैं जो गुवाहाटी की उस जी.एस. रोड से अलग हैं जिसकी चकाचौंध अन्य दूसरे शहरों जैसी ही है। रेलवे स्टेशन के एक ओर पल्टन बाजार है इसमें च्यादातर होटल आदि हैं। दूसरे स्थानों को जाने के लिए यहीं से वाहन मिलते हैं। रेलवे स्टेशन की दूसरी ओर पान बाजार है। इससे कुछ आगे फैन्सी बाजार है जो आज फैशन से जुड़ी सामग्री का केन्द्र है। शाम को यहां ऐसा लगता है कि मानो पूरा गुवाहाटी उतर आया हो। कभी इसके एक छोर पर जेल में मुजरिमों को फांसी दी जाती थी इसलिए यह फांसी बाजार कहलाता था, लेकिन आज यह फैन्सी बाजार कहलाता है।

    असम में जितनी सांस्कृतिक विविधता देखने को मिलती है, उतनी अन्यत्र नहीं। वैसे तो राच्य में अलग अलग क्षेत्रों में अलग-अलग त्योहार मनाए जाते हैं किन्तु बिहू पूरे राच्य भर में मनाया जाता है। इसमें हर धर्म, जाति व संप्रदाय के लोग भाग लेते हैं। बिहू एक अभिन्न नृत्य शैली भी है। जून माह में गुवाहाटी के कामाख्या मंदिर में अम्बूवाशी मेला होता है।

    असम में कांसे व पीतल व बांस का शिल्प प्रसिद्ध है। गुवहाअी के निकट रेशम का काम होता है। वैसे तो गुवाहाटी में लोग हिंदी जानते हैं किन्तु आम बोलचाल व लिखने की भाषा असमिया है। यहां पर हर प्रकार के पर्यटक के लिए हर प्रकार के बजट के अनुसार बेहतर होटल, पर्यटक गृह व रिजॉर्ट हैं। शहर में हर तरह की परिवहन व्यवस्था उपलब्ध है। गुवाहाटी आएं तो थोड़ा समय लेकर ही आएं ताकि लगे हाथ असम के अन्य स्थलों या दूसरे राच्यों की सैर का अवसर मिल सके। यदि आपके पास एक दिन का अतिरिक्त समय है तो शिलंाग की और यदि दो दिन हैं तो चेरापूंजी की सैर की जा सकती है। उत्तर पूरब भी भारत के अन्य स्थानों की तरह सुंदर व बेमिसाल है जहां आप एक बार जाने के बार-बार आना चाहेंगे।

    नदी जो पुत्र है

    तीन देशों में लगभग 2880 किमी. का सफर तय करने वाली ब्रह्मपुत्र को प्रवाह के मामले में दुनिया की चौथी बड़ी नदी माना गया है। इसका लगभग 1625 किमी. भाग तिब्बत में, 920 किमी भारत में व शेष 335 किमी बांगलादेश में पड़ता है। अपने लगभग 2900 किमी के रास्ते में इसके अनेक नाम है। तिब्बत में यह सांगपो कहलाती है। अरुणाचल में इसे सियांग व दिहांग कहा जाता है। इसका एक नाम लोहित भी है, हांलाकि लोहित अलग नदी भी है जो इसमें असम में मिलती है। असम में यह ब्रह्मपुत्र कहलाती है। बांग्लादेश में गंगा में मिलने से पहले यह दो धाराओं में बंट जाती है। एक तो ब्रह्मपुत्र ही रहती है जबकि दूसरी जमुना कहलाती है। बाद में गंगा व जमुना के मिलन बाद इसे पद्मा कहा जाता है। जनजातीय विविधता से परिपूर्ण पूर्वोत्तर में अलग अलग समाजों के द्वारा भी इस नदी को स्थानीय नामों से पुकारा जाता है। गुवाहाटी के करीब से गुजरने वाली ब्रह्मपुत्र यहां का एक बड़ा आकर्षण है। नदी तट के किनारे किनारे बनी महात्मा गांधी सड़क पर हर समय लोगों व वाहनों की भीड़ लगी होती है। साथ-साथ सड़क के दूसरी ओर ब्रह्मपुत्र का तट भी हर वक्त मोटरबोट से लेकर छोटे-बड़े बजरे, स्टीमरों व क्रूज से अटा मिलता है। ये नदी के आर-पार ले जाने के अलावा टापुओं व दूरस्थ स्थानों की सैर कराने के लिए भी हर दम तैयार मिलते हैं। नदी की विशालता व क्ष्ेात्रीय विविधता को जानने के लिए इसकी यात्रा सबसे अच्छा अवसर प्रदान करती है। इस नदी में कई टापू हैं। इनमें 350 किमी दूर पूरब में माजुली को किसी नदी के मध्य दुनिया का सबसे बड़ा टापू माना जाता है। इस पर पूरी बस्ती बसी है।

    गुवाहाटी में एक टापू उमानन्द है। इसके शीर्ष पर एक शिव मंदिर है। मान्यता है कि यहीं पर कामदेव ने समाधिस्थ भगवान शिव की तपस्या को भंग किया था जिससे कुपित होकर उन्होंने कामदेव को भस्म किया था। शिव मंदिर होने के कारण शिवरात्रि पर यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं। उमानन्द टापू से गुवाहाटी के तटवर्ती इलाके की झलक देखी जा सकती है। सायंकाल में टापू से सूर्यास्त का अद्वितीय नजारा दिखता है। यदि यहां पर कामदेव को भस्म किया गया था तो यहीं से 35 किमी दूर मदन कामदेव में कामदेव का पुनर्जन्म होना माना जाता है। आज यहां पर खण्डित मूर्तियों के भग्नावशेष हैं। इसे यहां का खजुराहो भी कहते हैं।

    एल. मोहन कोठियाल

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