'छिद्रान्वेषण', जो लोग दूसरों में ढूढ़ते हैं दोष...
छिद्रान्वेषी अमूमन उन्हीं लोगों में देखने को मिलती है जो स्वयं बुराइयों के भंडार होते हैं। इससे उनकी सकारात्मक ऊर्जा का निरंतर क्षरण होता है और स्वयं का विकास अवरुद्ध हो जाता है। चाणक्य ने कहा है ‘मनुष्य की यह प्रवृत्ति कभी अपने भीतर सद्गुणों का विकास नहीं होने देती।’

नई दिल्ली, डॉ. सत्य प्रकाश मिश्र। लोग प्राय: दूसरों में दोष ढूंढ़ने में लगे रहते हैं। इसी को छिद्रान्वेषण कहते हैं। ऐसा करने वाले लोग अपने बड़े-बड़े दोषों को देखते हुए भी नहीं देख पाते। फिर भी दूसरों में दोष निकालने से बाज नहीं आते। यह प्रवृत्ति न केवल स्वयं के लिए, अपितु समाज के लिए भी घातक है। इसी कारण समाज में ईर्ष्या, द्वेष और वैमनस्य का परिवेश बनता है। इसका सर्वाधिक विपरीत प्रभाव उन लोगों के मनोबल पर पड़ता है, जो ईमानदारी से समाज और देश की सेवा कर जीवन यापन करना चाहते हैं।
छिद्रान्वेषी प्रवृत्ति अमूमन उन्हीं लोगों में देखने को मिलती है जो स्वयं बुराइयों के भंडार होते हैं। इससे उनकी सकारात्मक ऊर्जा का निरंतर क्षरण होता है और स्वयं का विकास अवरुद्ध हो जाता है। इसीलिए चाणक्य ने कहा है, ‘मनुष्य की यह प्रवृत्ति कभी अपने भीतर सद्गुणों का विकास नहीं होने देती।’
परिणामस्वरूप मन, वाणी और कर्म तीनों कलुषित हो जाते हैं। महाभारत में दुर्योधन छिद्रान्वेषी दुष्प्रवृत्ति का सबसे बड़ा उदाहरण है। उसने कभी अपने दोष देखने का प्रयास नहीं किया। इसीलिए उसके मन, वाणी और कर्म सभी कलुषित हो गए। एक बार गुरु द्रोण ने दुर्योधन और युधिष्ठिर दोनों को राज्य में साधु पुरुषों की गणना के लिए भेजा तो दुर्योधन को कोई साधु पुरुष मिला ही नहीं। यह दुर्योधन की छिद्रान्वेषी दुष्प्रवृत्ति का परिणाम था। इसके विपरीत युधिष्ठिर को कोई दुर्जन व्यक्ति नहीं मिला। वास्तव में दूसरे के दोष देखने का अधिकार उसी को है, जिसमें वह बुराई न हो।
यदि सभी लोग निष्पक्ष भाव से आत्मनिरीक्षण करने लगें तो स्वयं के दोष दूर करने में ही जीवन बीत जाएगा। दूसरों के दोष देखने का अवसर ही नहीं मिलेगा। इससे सामाजिक बुराइयां स्वत: समाप्त हो जाएंगी और समाज में समरसता का भाव बढ़ेगा। इसीलिए संत कबीर कहते हैं-बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय।।’
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