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जाने, गुरु गोबिंद सिंह के बारे मैं ऐसी बातें जो आपको अचंभित कर देगी

उन्‍हें भौतिक सुखों से कोई लगाव नहीं था। बचपन में एक बार उनके चाचा ने गुरु गोबिंद सिंह को सोने के दो कड़े भेंट किए थे, लेकिन खेलकूद के दौरान एक कड़ा नदी में गिर गया...

By Preeti jhaEdited By: Published: Thu, 05 Jan 2017 11:15 AM (IST)Updated: Thu, 05 Jan 2017 01:02 PM (IST)
जाने, गुरु गोबिंद सिंह के बारे मैं ऐसी बातें जो आपको अचंभित कर देगी

सिख धर्म के दसवें और अंतिम गुरु माने जाने वाले गुरु गोविंद सिंह जी की जयंती आज 5 जनवरी, गुरुवार को है। गुरु गोविंद सिंह सिख धर्म के नवें गुरु तेगबहादुर के पुत्र थे। गुरु गोविंद सिंह का जन्म पटना में हुआ था। उस समय तेगबहादुर असम में थे। जब वह वहगां से वापस लौटकर आए तो गुरु गोविंद सिंह 4 साल के हो चुके थे।

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कहा जाता है कि जब तेग बहादुर असम की यात्रा में गए थे। उससे पहले ही होने वाले बच्चे का नाम गुरु गोविंद सिंह रख दिया गया था। जिसके कारण उन्हे बचपन में गोविंद राय कहा जाता था। गुरु गोविंद बचपन से ही अपनी उम्र के बच्चों से बिल्कुल अलग थे। जब उनके साथी खिलौने से खेलते थे। और गुरु गोविंद सिंह तलवार, कटार, धनुष से खेलते थे।

पटना से ही गोविंद सिंह ने संस्कृत, अरबी और फारसी की शिक्षा प्राप्त की थी। इस समय़ भी पटना के एक गुरद्वारा जो भौणी साहब के नाम से जाना जाता है। वहां पर आपको गुरु गोविंद सिंह के बचपन में पहने हुए खड़ाऊं, कटार, कपड़े और छोटा सा धनुष-बाण रखा हुआ है।

जब गुरु गोविंद सिंह छोटे थे तभी गुरु तेगबहादुर ने उनकी शिक्षा के लिए आनंदपुर में समुचित व्यवस्था की गई थी। जिसके कारण वह थोडे समय में कई भाषाओं में महारत हासिल कर लिया था। संवत् 1731 जब मुगल शासक औरंगजेब के अत्याचार बढते चले जा रहे थे। वह कश्मीरी पंडितों में घोर अत्याचार कर रहा था। जिसके कारण यह लोग गुरु तेगबहादुर की शरण में आए।

जब उनकी बात सुनकर गुरु तेगबहादुर ने कहा था कि हमारे हिंदु धर्म की रक्षा के लिए किसी महापुरुष की आवश्यकता है। इस बात को सुन कर गुरु गोविंद सिंह ने अपने पिता से कहा कि 'इस संसार में आपसे बड़ा महापुरुष कौन हो सकता है'। जब गुरु गोविंद सिंह ने यह बात की उस समय उनकी उम्र महज 9 साल की थी।

इतिहास में ऐसे बहुत कम उदाहरण मिलेंगे जब किसी बालक ने अपने पिता को ही धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने की प्रेरणा दी हो। गुरु तेगबहादुर के शहीद हो जाने पर 1733 को गोविंद राय गद्दी पर बैठे। तब तक काफी लोग उन्हें चमत्कारी पुरुष मानने लगे थे।

सिख धर्म के दसवें और अंतिम गुरु के रूप में प्रसिद्ध गुरु गोबिंद सिंह बचपन ने बहुत ही ज्ञानी, वीर, दया धर्म की प्रतिमूर्ति थे। खालसा पंथ की स्थापना कर गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिक्ख धर्म के लोगों को धर्म रक्षा के लिए हथियार उठाने को प्रेरित किया। पूरी उम्र दुनिया को समर्पित करने वाले गुरु गोबिंद सिंह जी ने त्याग और बलिदान का जो अध्याय लिखा वो दुनिया के इतिहास में अमर हो गया। गुरु गोबिंद सिंह जी की जयंती के मौके पर आइए जानें उनके बारे में वो बातें, जिन्हें जानकर आपका शीश भी झुक जाएगा उनके चरणों में।

गुरु गोबिंद सिंह बचपन ने लोगों की भलाई के लिए जी जान लगाने को उत्सुक रहते थे। एक बार तमाम कश्मीरी पंडित औरंगजेब द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन कराए जाने से बचने के लिए उनके पिता गुरु तेग बहादुर के पास सहायता मांगने आए थे। उस समय गुरु गोबिंद सिंह यानि गोविंद राय की उम्र सिर्फ नौ साल थी, लेकिन कश्मीरी पंडितों का कष्ट जानकर उन्होंने अपने पिता से कहा कि इस समय धरती पर आपसे ज्यादा महान और शक्तिशाली और कौन है, इसलिए आपको इस पंडितों की सहायता के लिए जरूर जाना चाहिए। आखिरकार उन्होंने अपने पिता को औरंगजेब के अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए भेज ही दिया। इसके कुछ समय बाद ही पिता की के शहीद होने पर नौ बरस की कम उम्र में ही उन्हें सिक्खों के दसवें गुरु के तौर पर गद्दी सौंप दी गई थी।

महान ज्ञानी और वीर

गुरु गोबिंद सिंह ने बहुत कम उम्र में ही तमाम भाषाएं जैसे- संस्कृत, ऊर्दू, हिंदी, गुरुमुखी, ब्रज, पारसी आदि सीख ली थीं। इसके अलावा एक वीर योद्धा की तरह उन्होंने तमाम हथियारों को चलाने के साथ ही कई युद्धक कलाओं को भी सीख लिया था। और तो और खास तरह के युद्ध के लिए गुरु गोबिंद सिंह ने खास हथियारों पर भी महारथ हासिल कर ली थी। उनके द्वारा इस्तेमाल किया गया नागिनी बरछा आज भी नांदेड़ के हुजूर साहिब में मौजूद है। युद्ध के दौरान मुगलों द्वारा छोड़े गए पागल हाथियों को मारने के लिए ये एक कारगर हथियार था।

जन्मजात योद्धा

गुरु गोबिंद सिंह जी एक जन्म जात योद्धा थे, लेकिन वो कभी भी अपनी सत्ता को बढाने या किसी राज्य पर काबिज होने के लिए नहीं लड़े। उन्हें राजाओं के अन्याय और अत्याचार से घोर चिढ़ थी। आम जनता या वर्ग विशेष पर अत्याचार होते देख वो किसी से भी राजा से लोहा लेने को तैयार हो जाते थे, चाहे वो शासक मुगल हो या हिंदू। यही वजह रही कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने औरंगजेब के अलावा, गढ़वाल नरेश और शिवालिक क्षेत्र के कई राजाओं के साथ तमाम युद्ध लडे।गुरु गोबिंद सिंह जी की वीरता को यूं बयां करती हैं ये पंक्ितयां “सवा लाख से एक लड़ाऊँ चिड़ियों सों मैं बाज तड़ऊँ तबे गोबिंदसिंह नाम कहाऊँ”।

राष्ट्र हित मे बलिदान के लिए की खालसा पंथ की स्थापना

गुरु गोबिंद सिंह जी ने 30 मार्च 1699 को आनंदपुर, पंजाब में अपने अनुयायियों के साथ मिलकर राष्ट्र हित के लिए बलिदान करने वालों का एक समूह बनाया, जिसे उन्होंने नाम दिया खालसा पंथ। खालसा फारसी का शब्द है, जिसका मतलब है खालिस यानि पवित्र। यहीं पर उन्होंने एक नारा दिया 'वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह'।

खालसा बना जीवन जीने का तरीका

गुरु गोबिंद सिंह द्वारा बनाया गया खालसा पंथ आज भी सिक्ख धर्म का प्रमुख पवित्र पंथ है, जिससे जुड़ने वाले जवान लड़के को अनिवार्य रूप से केश, कंघा, कच्छा, कड़ा और कृपाण धारण करनी होती है। सिक्ख धर्म के लोग 'वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह' नारा बोलकर आज भी वाहे गुरु के लिए सब कुछ करने की सौंगध खाते हैं।

महान कवि

गुरु गोबिंद सिंह युद्ध कला के साथ साथ लेखन कला के भी धनी थे। उन्होंने 'जप साहिब' से लेकर तमाम ग्रंथों में गुरु की अराधना की बेहतरीन रचनाएं लिखीं। संगीत की द्रष्टि से ये सभी रचनाएं बहुत ही शानदार हैं। यानि सबद कीर्तन के रूप में उन्हें सुर और ताल के साथ मन को छू लेने वाले अंदाज में गाया जा सकता है।

संगीत के पारखी

गुरु गोबिंद सिंह जी काव्य रचनाकार होने के साथ साथ संगीत के भी पारखी थे। कई वाद्य यंत्रों में उनकी इतनी अधिक रुचि थी कि उन्होंने अपने लिए खासतौर पर कुछ नए और अनोखे वाद्य यंत्रों का अविष्कार कर डाला था। गुरु गोबिंद सिंह द्वारा इजाद किए गए 'टॉस' और 'दिलरुबा' वाद्य यंत्र आज भी संगीत के क्षेत्र में जाने जाते हैं।

भौतिक सुख से दूर रहने का दिया संदेश

गुरु गोबिंद सिंह जी ने हमेशा ही अपने अनुयायियों को इस बात का संदेश दिया कि भौतिक सुख सुविधाओं में मत उलझो, बल्िक वाहे गुरु के लिए पीड़ित जनों की सेवा और रक्षा करो। बचपन में एक बार उनके चाचा ने गुरु गोबिंद सिंह को सोने के दो कड़े भेंट किए थे, लेकिन खेलकूद के दौरान एक कड़ा नदी में गिर गया। जब उनकी मां गुजरी जी ने उनसे पूछा कि वो कड़ा कहां फेंक दिया, तो उन्होंने दूसरा कड़ा उतारकर नदी में फेंक दिया और बोला कि यहां गिरा दिया। मतलब बचपन से ही उन्हें भौतिक सुखों से कोई लगाव नहीं था।

पूरा परिवार किया कुर्बान

गुरु गोबिंद सिंह जी को सर्वांश दानी कहा जाता है। शासकों द्वारा आम लोगों पर किए जाने वाले अत्याचार और शोषण के खिलाफ लड़ाई में उन्होंने अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। अपने पिता, मां और अपने चारों बेटों को उन्होंने खालसा के नाम पर कुर्बान कर दिया।

गुरु ग्रंथ साहिब को दिया नाम

गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिक्ख धर्म और खालसा पंथ के धार्मिक कथ्यों और ग्रंथ को नाम दिया 'गुरु ग्रंथ साहिब'। सिक्खों का यह सबसे पवित्र ग्रंथ ही इस धर्म का प्रमुख प्रतीक है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने 7 अक्टूबर 1708 में महाराष्ट्र के नांदेड़ में अपना शरीर छोड़ा था।

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