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    Jyeshtha Purnima 2025: कब और कैसे हुई वेदों की उत्पत्ति? यहां जानें धार्मिक महत्व

    By Jagran News Edited By: Pravin Kumar
    Updated: Sun, 08 Jun 2025 11:41 PM (IST)

    आदित्यपुराण का कथन है कि ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को तिल दान करने से अश्वमेध यज्ञ का पुण्य मिलता है जबकि विष्णुशुद्धि ग्रंथ में कहा गया है कि यदि कोई भी व्यक्ति श्रद्धाभक्तिपूर्वक ज्येष्ठीपूर्णिमा को छाता जूता तिल सत्तू जल का घड़ा जो जलपूरित हो तथा पंख खस चंदन आदि का दान करता है वह भगवान विष्णु की प्रीति को प्राप्त कर लेता है।

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    Jyeshtha Purnima 2025: ज्येष्ठ पूर्णिमा का धार्मिक महत्व

    प्रो. गिरिजा शंकर शास्त्री (अध्यक्ष, ज्योतिष विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय)। भारतीय मनीषियों ने कालगणना के प्रसंग में चान्द्रमास के अन्तर्गत चैत्रादि बारह मासों को निश्चित किया है, जिसमें तीसरे मास के क्रम में ज्येष्ठमास आता है। यह संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से ज्येष्ठा नक्षत्र में अण् प्रत्यय के योग से ज्येष्ठ मास बनता है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है सबसे बड़ा मास या प्रशस्त मास। यह मास सभी मासों में बड़ा है। बड़ा होना इस दृष्टि से है कि पृथ्वीवासियों को भगवान सूर्य की सर्वाधिक ऊर्जा (प्रकाश) इसी माह में प्राप्त होता है।

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    यह मास सूर्य के उत्तरायण का अंतिम मास है तथा इसी मास में दिनों की वृद्धि सर्वाधिक होती है तथा रात्रियां अत्यधिक छोटी हो जाती हैं। इस मास में सूर्य का सौम्यायन के साथ साथ सौम्य गोल में रहना भी होता है। वृष राशि के सूर्य अपने प्रचंड ताप से सभी जीव-जंतु ही नहीं वृक्ष, वनस्पति एवं अन्यान्य जगत के लोग भी त्राहि त्राहि करने लगते हैं। महाकवि कालिदास कहते हैं –

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    प्रचण्डसूर्यः स्पृहणीय चन्द्रमाः सदावगाहक्षतवारिसंचयः।

    दिनान्तरम्योऽभ्युपशान्तमन्मथो निदाघकालोऽयमुपागतः प्रिये।।

    अर्थात् सूर्य की प्रचण्डता से दिन में लोग छिप जाते हैं। रात्रि में चन्द्रमा सुहावना हो जाता है। गहरे ठंडे जल में स्नान सुखद लगता है, कामदेव शिथिल हो जाते हैं। लौकिक जगत में ज्येष्ठ मास के प्रत्येक मंगलवार को हनुमानजी के भक्त दर्शन करने हनुमान मंदिर में जाते हैं। ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा दो प्रकार की होती है। सामान्य पूर्णिमा तथा महाज्येष्ठी पूर्णिमा। जब बृहस्पति एवं सूर्य रोहिणी नक्षत्र में पड़े तथा चंद्रमा ज्येष्ठा नक्षत्र में हो तब उसे ही महाज्येष्ठी पूर्णिमा कहा जाता है।

    वर्षकृत्य में ज्येष्ठपूर्णिमा मन्वादि तिथियों के अंतर्गत मानी गई है। काल विवेक नामक ग्रंथ में कहा गया है कि वेदों की उत्पत्ति भी ज्येष्ठमास की पूर्णिमा को ही हुई थी। संतकवि कबीरदास जी का जन्म इसी ज्येष्ठपूर्णिमा को ही हुआ था। पुराणों के अनुसार, ज्येष्ठमास की पूर्णिमा को ही हिमालय के मानसरोवर से सरयू नदी का प्राकट्य हुआ था। इस तिथि को भगवान जगन्नाथ जी का जलाभिषेक किया जाता है। जलयात्रा भी निकाली जाती है।

    आदित्यपुराण का कथन है कि ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को तिल दान करने से अश्वमेध यज्ञ का पुण्य मिलता है, जबकि विष्णुशुद्धि ग्रंथ में कहा गया है कि यदि कोई भी व्यक्ति श्रद्धाभक्तिपूर्वक ज्येष्ठीपूर्णिमा को छाता, जूता, तिल, सत्तू, जल का घड़ा जो जलपूरित हो तथा पंख, खस, चंदन आदि का दान करता है, वह भगवान विष्णु की प्रीति को प्राप्त कर लेता है। ज्योतिषशास्त्र के संहिता ग्रंथों में ज्येष्ठ पूर्णिमा को वायु परीक्षण द्वारा आगामी वर्षा ऋतु में होने वाली वर्षा का अनुमान कर लेने के योग बताए गए हैं। नारद संहिता में कहा है कि –

    पूर्णिमायाममायां वा ज्येष्ठे व्योमान्वितं घनैः।

    दिवा वा यदि वा रात्रौ तदाज्ञेयमवर्षणम्।।

    अर्थात ज्येष्ठ पूर्णिमा या अमावस्या में आकाश दिन अथवा रात्रि में घनाच्छादित हो तो वर्षाऋतु में अवर्षण जानना चाहिए। नारद पुराण के अनुसार, ज्येष्ठमास की पूर्णिमा को वटसावित्री व्रत का पारण करना चाहिए। इस दिन महिलाएं उपवास कर अमृत के समान मधुर जल से वटवृक्ष को सींचे और सूत से उस वृक्ष को 108 बार प्रदक्षिणा करती हुई लपेट दें। पुनः परम पतिव्रता सावित्री देवी से प्रार्थना करें-

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    जगत्पूज्ये जगन्मातः सावित्रि पतिदैवते।

    पत्यासहावियोगं मे वटस्थे कुरु ते नमः।। (नारद पुराण 124/11)

    अर्थात् हे जगन्माता सावित्री! तुम संपूर्ण जगत के लिए पूजनीय तथा पति को ही इष्टदेव मानने वाली पतिव्रता हो। वटवृक्ष पर निवास करने वाली हे देवि तुम ऐसी कृपा करो जिससे मेरा पति के साथ नित्य संयोग बना रहे, कभी भी वियोग न हो, तुम्हें मेरा सादर प्रणाम है। जो नारियां इस प्रकार प्रार्थना करके दूसरे दिन सौभाग्यवती स्त्रियों को भोजन कराने के पश्चात स्वयं भोजन करती हैं, वे सदा सौभाग्यवती बनी रहती हैं।

    दशपौर्णमास यज्ञ तथा पितरों के निमित्त श्राद्धकर्म भी ज्येष्ठपूर्णिमा में करणीय होता है। इस तिथि को भगवान विष्णु की पूजा लक्ष्मी जी के सहित करने से अंत:करण की शुद्धि तथा जीवनयात्रा में आने वाले अनेक कष्ट तथा समस्त विघ्नबाधाएं स्वतः समाप्त हो जाती हैं।