Samudra Manthan: कब और कैसे हुई पांचजन्य शंख की उत्पत्ति? पढ़ें समुद्र मंथन की कथा
आयुर्वेद के अनुसार शंख का वादन हृदय और फेफड़ों को पुष्ट करता है। योगादि क्रियाकलापों और ध्यान-धारणा-समाधि के लिए हृदय और फेफड़ों का निरोग और पुष्ट होना अत्यंत आवश्यक होता है तभी साधक योगाभ्यास प्राणायाम और भगवद्ध्यानादि का अभ्यास सुचारु रूप से करके भगवत्साक्षात्काररूपी रसामृत का पान करने में सामर्थ्यवान होता है। वैदिक और पौराणिक सद्ग्रंथों में इसकी ध्वनि की गूंज को विजय कीर्ति यश का प्रतीक माना गया है।
आचार्य नारायण दास (श्रीभरतमिलाप आश्रम, ऋषिकेश)। समुद्र मंथन से बारहवें क्रम में पांचजन्य शंख का प्राकट्य हुआ, जिसे भगवान विष्णु ने धारण कर लिया। हमारे वैदिक और पौराणिक आलेखों में शंख और उसकी ध्वनि की महिमा गुंफित है, इसकी परमपावन ध्वनि त्रैलोक्य में परिव्याप्त होती मंगलसूचक, आत्मबोधक और कल्याणप्रद होती है। सागर से ही भगवती लक्ष्मी जी और शंख की उत्पत्ति हुई है, इसलिए परस्पर दोनों भाई-बहन हैं। जहां शंख का नियमित पूजन और वादन होता है, वहां भगवती लक्ष्मी जी कृपा से संपन्नता और निरोगिता स्थिर रहती है।
आयुर्वेद के अनुसार, शंख का वादन हृदय और फेफड़ों को पुष्ट करता है। योगादि क्रियाकलापों और ध्यान-धारणा-समाधि के लिए हृदय और फेफड़ों का निरोग और पुष्ट होना अत्यंत आवश्यक होता है, तभी साधक योगाभ्यास, प्राणायाम और भगवद्ध्यानादि का अभ्यास सुचारु रूप से करके, भगवत्साक्षात्काररूपी रसामृत का पान करने में सामर्थ्यवान होता है। समुद्र मंथन में पांच लोग सम्मिलित हुए थे- सुर, असुर, नाग, गरुण और ऋषि-मुनि, इसलिए भी इसे पांचजन्य कहा जाता है।
यह भी पढें: देह शिवालय, आत्मा महादेव और बुद्धि ही पार्वती हैं
इसमें इन पांचों की भावनाएं और उनका श्रम समाया हुआ है। सुर-कल्याण परक विचारधारा, असुर हठपरक विचारधारा, नाग और गरुण के दूसरे के शत्रु हैं, लेकिन सत्कार्य में परस्पर मित्रभाव के प्रतीक हैं और ऋषि-मुनि ज्ञान-विज्ञान के। भगवद्भक्ति रूपी अमृत का वही साधक पान कर सकता है, जो शत्रु को मित्र बनाकर सबके कल्याण का चिंतन करता हुआ अजातशत्रु होकर अपरोक्ष ज्ञान-विज्ञान के अवलंबन से अपनी साधना को पुष्ट कर लेता है।
वैदिक और पौराणिक सद्ग्रंथों में इसकी ध्वनि की गूंज को विजय, कीर्ति, यश और मंगल का प्रतीक माना गया है। कौरव-पांडव के महासमर के आरंभ में कुरुक्षेत्र की रणभूमि में सर्वप्रथम भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा पांचजन्य शंख का वादन किया गया, जिसका अभिप्राय और संदेश था कि समर में धर्मपरायण पांडवों की विजय सुनिश्चित है। पांचजन्य का प्राकट्य इस तथ्य को भी दर्शाता है, धर्मपरायण व्यक्ति ही संसार रूपी महासमर में भगवत्कृपा से विजयी होकर मोक्षरूपी अमृत पान करने का अधिकारी है।
यह भी पढें: हनुमान जी से सीखें अपनी जीवन-यात्रा के लिए मंगलमय मंत्र
शंखवादन से साधक का नादब्रह्म से एकाकार होता है। इसकी गूंज से इंद्रियों की बहिर्मुखी हलचल समाप्त हो जाती है और मन शांत होकर, ब्रह्मानंद का रसास्वादन करता है। पांचजन्य के प्रादुर्भाव के पश्चात ही धन्वंतरि जी अमृत कलश को लेकर प्रकट हुए, यहां इसका आध्यात्मिक तात्पर्य यह है, भगवद्भक्तिरूपी अमृत का पान वही साधक कर सकेगा, जिसकी इन्द्रियां अंतर्मुखी और मन शांत हो जाए।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।