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    Samudra Manthan: कब और कैसे हुई चंद्र देव की उत्पत्ति? समुद्र मंथन से जुड़ा है कनेक्शन

    By Jagran News Edited By: Pravin Kumar
    Updated: Mon, 02 Dec 2024 06:45 PM (IST)

    वृद्धि और ह्रास पंचभौतिक शरीर के होते हैं न कि आत्मा के। आत्म तो सदा एक रस है और अपरिवर्तनीय है। पुरुषार्थ अथवा सत्कर्म से चंद्रमा की कला के समान जब जीवन में मान-सम्मान धन-बल जन-बल और ऐश्वर्यादि की अभिवृद्धि हो तो उस पर अभिमान न करके चंद्रमा के तुल्य समाज को यथाशक्ति सुख प्रदान करके मानव जीवन को कृतज्ञतापूर्वक धन्य-धन्य करने में ही जीवन की सार्थकता है।

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    Samudra Manthan: चंद्र देव को कैसे प्रसन्न करें?

    आचार्य नारायण दास (श्रीभरतमिलाप आश्रम, ऋषिकेश)। जीवन और जगत की तात्विक मीमांसा का सरल रूपक है समुद्रमंथन का प्रसंग। सागररूपी मन का मंथन जब विचाररूपी मथानी से होता है तो अनेक प्रकार की समुत्प्रेक्षाएं और कामनाएं प्रकट होती हैं, जो नश्वर भोगपदार्थों में मानव को भांति-भांति के मोहक पदार्थों में फंसाकर, उसके जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देती हैं, किंतु जिसे भगवद्भक्ति रूपी अमृत का पान करना ही श्रेयस्कर है, वह कदापि इन की ओर आकर्षित नहीं होता है।

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    सागर मंथन के दसवें क्रम में चंद्रमा का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे सादर भगवान शिव ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया। जिस व्यक्ति का मन चंद्रमा के समान सबको शीतलता रूपीसुख प्रदान करने वाला हो जाता है, वह परमात्मा के मस्तक पर शोभायमान होता है।

    यहां यह संकेत है कि भगवान को प्रिय वही हो सकता है, जो निर्मल और शीतल हो। जब जीवन की गति-मति छल-कपट और प्रपंच से रहित हो जाती है, तब उसका मन चंद्रमा के समान शीतल और निर्मल हो जाता है और वह प्रभु का प्रिय होकर, जगत वंदनीय हो जाता है। चंद्रमा का सहज गुणधर्म शीतलता है, जो कभी घटता या बढ़ता नहीं है, अपितु उसकी 16 कलाएं घटती और बढ़ती हैं।

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    चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है और पृथ्वी सूर्य की। इस कारण सूर्य का आंशिक प्रकाश पृथ्वी द्वारा बाधित होने पर चंद्रमा पर छाया का हेतु होता है। इसी छाया से चंद्रमा की आकृति में आने वाले परिवर्तन को उसकी 'कला' कहते हैं, जिसके अवलंबन से भारतीय पंचांग में तिथियों निर्धारण होता है।

    इसी प्रकार वृद्धि और ह्रास पंचभौतिक शरीर के होते हैं, न कि आत्मा के। आत्म तो सदा एक रस है और अपरिवर्तनीय है। यहां आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, पुरुषार्थ अथवा सत्कर्म से चंद्रमा की कला के समान जब जीवन में मान-सम्मान, धन-बल, जन-बल और ऐश्वर्यादि की अभिवृद्धि हो, तो उस पर अभिमान न करके, चंद्रमा के तुल्य समाज को यथाशक्ति सुख प्रदान करके, मानव जीवन को कृतज्ञतापूर्वक धन्य-धन्य करने में ही जीवन की सार्थकता है।

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    चंद्रमा यह शिक्षा देता है कि जीवन में आने वाली अनुकूलता या प्रतिकूलता के कारण कभी भी अपनी मूल प्रकृति का परित्याग नहीं करना चाहिए, क्योंकि जीवन में आने वाले सुख-दुख तो चंद्रकला के सदृश अस्थायी होते हैं, जैसे आकाश में बादल आते हैं और चले जाते हैं, ऐसे ही चंद्रमा की कलाएं घटती-बढ़ती रहती हैं, लेकिन वह सदा एक समान ही रहता है।

    इसी प्रकार हमें भी अपने आदर्श और संस्कारों को सदा एक-सा रखना चाहिए, भले ही क्यों न अनेक झंझावातों से जूझ रहे हों। चंदन के वृक्ष पर विषैले सर्प चारों ओर लिपटे रहते हैं, किंतु उस पर उनके विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, क्योंकि वह अपनी शीतलता का परित्याग नहीं करता है। ठीक इसी प्रकार जिसका हृदय चंद्रमा के समान शीतल हो जाता है, वह पुण्यात्मा भगवद्भक्ति रूपी अमृत का पान कर, मोक्ष पद को सहज ही वरण कर लेता है।