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    श्रीकृष्ण ने मनुष्य के पतन के तीन कारण बताए हैं

    By Preeti jhaEdited By:
    Updated: Tue, 08 Dec 2015 09:39 AM (IST)

    आचार पर विचार का समन्वय संस्कृति है। भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक साधना का जो प्रभाव लक्षित होता है उसका आधार सदाचार है। सदाचार के दो स्तंभ होते है ...और पढ़ें

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    श्रीकृष्ण ने मनुष्य के पतन के तीन कारण बताए हैं

    आचार पर विचार का समन्वय संस्कृति है। भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक साधना का जो प्रभाव लक्षित होता है उसका आधार सदाचार है। सदाचार के दो स्तंभ होते हैं विनम्रता व क्रोधहीनता। हमारे ऋषियों ने आचार के बहिरंग और अंतरंग पक्ष की विनम्रता के लिए क्रोध को त्याज्य माना है। गीता में श्रीकृष्ण ने मनुष्य के पतन के तीन कारण बताए हैं। काम, क्रोध और लोभ। ये ऐसे विकार हैं जो मनुष्य को नारकीय स्थिति की ओर ले जाते हैं। अथर्व वेद में ऋषि काम और क्रोध को गिद्ध का प्रतीक मानते हुए कहते हैं कि काम, क्रोध रूपी गिद्ध सब ओर उड़ते-फिरते हैं।
    भाव यह है कि जो व्यक्ति काम क्रोध भाव से पीड़ित होता है उसे कहीं शांति प्राप्त नहीं होती। वह सदा अतृप्त और कुंठित अनुभव करता है इसलिए उसका जीवन पलायनवादी हो जाता है। महाभारत के अनुशासन पर्व में उसे आदरणीय माना गया है जो धैर्यवान है और क्रोध पर नियंत्रण करने की क्षमता रखता है। महाभारतकार यह लिखते हैं कि जब व्यक्ति क्रोध को नियंत्रित करना सीख लेता है तब वह किसी को पीड़ा नहीं पहुंचा सकता। व्यक्ति के लौकिक आचरण का उज्‍जवल पक्ष यही है कि वह स्वयं को समाजोपयोगी प्रमाणित करे और सौहाद्र्रपूर्ण वातावरण के निर्माण में सहायक हो। क्रोधहीनता ही व्यक्ति को उच्चमानवीय गुणों से समाहित कर सकती है। क्रोध का दुष्प्रभाव केवल अन्य लोगों पर ही नहीं होता, अपितु स्वयं को क्रोध अधिक हानि पहुंचाता है। अथर्व वेद में ऋषि कहते हैं कि क्रोध से मन को क्षति पहुंचती है।
    इसलिए ऋषि आह्वान करते हैं कि क्रोध मत करें। वैदिक ग्रंथों में क्रोध को भी नाशकारी मानसिकता का द्योतक बताया गया है। तत्वदर्शियों का कहना है कि क्रोध एक ऐसी अग्नि है जो दूसरों को जलाने से पहले स्वयं को भस्म करती है। क्रोध धैर्य, विद्या और शास्त्र ज्ञान सबको नष्ट कर डालता है। क्रोध के समान दूसरा शत्रु नहीं है। क्रोध सौंदर्य को नष्ट करता है। व्यक्ति को एक ऐसी स्थिति में ले जाता है जहां वह अपना विवेक खो देता है। भारतीय जीवन दृष्टि केवल वाह्य आचरण को ही निर्देशित नहीं करती, अपितु आंतरिक व्यवहार को भी नियंत्रित करती है। क्रोध एक ऐसी मनोदशा है जिसका जन्म आंतरिक जगत में होता है, लेकिन प्रकटीकरण वाह्य व्यवहार में होता है।

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