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सिखों के तीसरे गुरु श्री अमरदास जी

समाज से भेदभाव खत्म करने के प्रयासों में सिखों के तीसरे गुरु श्री अमरदास जी का बड़ा योगदान है। कल 23 मई को उनका प्रकाश पर्व (जयंती) है, इस अवसर पर विशेष.. सिखों के तीसरे गुरु अमरदास जी बड़े आध्यात्मिक चिंतक तो थे ही, उन्होंने समाज को विभिन्न प्रकार की सामाजिक कुरीतियों से

By Edited By: Published: Thu, 23 May 2013 02:33 PM (IST)Updated: Thu, 23 May 2013 02:38 PM (IST)
सिखों के तीसरे गुरु श्री अमरदास जी

समाज से भेदभाव खत्म करने के प्रयासों में सिखों के तीसरे गुरु श्री अमरदास जी का बड़ा योगदान है। 23 मई को उनका प्रकाश पर्व (जयंती) है, इस अवसर पर विशेष..

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सिखों के तीसरे गुरु अमरदास जी बड़े आध्यात्मिक चिंतक तो थे ही, उन्होंने समाज को विभिन्न प्रकार की सामाजिक कुरीतियों से मुक्त करने के लिए सही मार्ग भी दिखाया।

गुरु अमरदास जी ने वैशाख शुक्ल एकादशी संवत 1536 वि. अर्थात 23 मई, 1479 ई. को अमृतसर के 'बासर के' गांव में पिता श्री तेजभान एवं माता लखमी जी के घर जन्म लिया। वे दिन भर खेती और व्यापार के कार्र्यो में व्यस्त रहने के बावजूद हरि नाम सिमरन में लगे रहते। लोग उन्हें भक्त अमरदास जी कहकर पुकारते थे। उन्होंने 21 बार हरिद्वार की पैदल फेरी लगाई थी।

एक बार उन्होंने अपनी पुत्रवधू से गुरु नानक देव जी द्वारा रचित एक 'शबद' सुना। उसे सुनकर वे इतने प्रभावित हुए कि पुत्रवधू से गुरु अंगद देव जी का पता पूछकर तुरंत उनके गुरु चरणों में आ बिराजे। उन्होंने 61 वर्ष की आयु में अपने से 25 वर्ष छोटे और रिश्ते में समधी लगने वाले गुरु अंगद देव जी को गुरु बना लिया और लगातार 11 वर्षो तक एकनिष्ठ भाव से गुरु सेवा की। सिखों के दूसरे गुरु श्री अंगद देव जी ने उनकी सेवा और समर्पण से प्रसन्न होकर एवं उन्हें सभी प्रकार से योग्य जानकर 'गुरुगद्दी' सौंप दी। इस प्रकार वे सिखों के तीसरे गुरु बन गए।

मध्यकालीन भारतीय समाज 'सामंतवादी समाज' होने के कारण अनेक सामाजिक बुराइयों से ग्रस्त था। उस समय जाति-प्रथा, ऊंच-नीच, कन्या-हत्या, सती-प्रथा जैसी अनेक बुराइयां समाज में प्रचलित थीं। ये बुराइयां समाज के स्वस्थ विकास में अवरोध बनकर खड़ी थीं। ऐसे कठिन समय में गुरु अमरदास जी ने इन सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध बड़ा प्रभावशाली आंदोलन चलाया। जाति-प्रथा एवं ऊंच-नीच को समाप्त करने के लिए गुरु जी ने लंगर प्रथा को और सशक्त किया। उस जमाने में भोजन करने के लिए जातियों के अनुसार 'पांतें' लगा करती थीं, लेकिन गुरु जी ने सभी के लिए एक ही पंगत में बैठकर 'लंगर छकना' (भोजन करना) अनिवार्य कर दिया। कहते हैं कि जब मुगल बादशाह अकबर गुरु-दर्शन के लिए गोइंदवाल साहिब आया, तो उसने भी 'संगत' के साथ एक ही 'पंगत' में बैठकर लंगर छका। यही नहीं, छुआछूत को समाप्त करने के लिए गुरु जी ने गोइंदवाल साहिब में एक 'सांझी बावली' का निर्माण भी कराया। कोई भी मनुष्य बिना किसी भेदभाव के इसके जल का प्रयोग कर सकता था।

गुरु जी का एक अन्य क्रांतिकारी कार्य सती-प्रथा की समाप्ति था। आपने सती-प्रथा जैसी घिनौनी रस्म को स्त्री के अस्तित्व का विरोधी मानकर, उसके विरुद्ध जबरदस्त प्रचार किया। गुरु जी द्वारा रचित 'वार सूही' में सती प्रथा का ज़ोरदार खंडन किया है। इतिहासकारों का मत है कि गुरु जी सती प्रथा के विरोध में आवाज उठाने वाले पहले समाज सुधारक थे। यह गुरु अमरदास जी एवं बाद के अन्य समाज सुधारकों के प्रयत्नों का ही फल है कि आज का समाज अनेक बुराइयों से दूर हो सका है।

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