परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार कहे जाते
परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार कहे जाते हैं। वह त्रेता युग (रामायण काल) के मुनि थे। उनका जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि की ओर से करवाए गए पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप हुआ।
परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार कहे जाते हैं। वह त्रेता युग (रामायण काल) के मुनि थे। उनका जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि की ओर से करवाए गए पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप हुआ।
पौराणिक उल्लेख- परशुरामजी का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से 21 बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाए गए। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी संतानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता-पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवंत बनाए रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल, फूल और समूची प्रकृति के लिए जीवंत रहे।
उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है ना कि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है।
उनके जाने-माने शिष्य थे -भीष्म, द्रोण (कौरव व पांडवों के गुरु व अश्वत्थामा के पिता) और कर्ण।
भृगु ऋषि का वरदान- प्राचीन काल में कन्नौज में गाधि नाम के एक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्चात् वहाँ भृगु ऋषि ने आकर अपनी पुत्रवधु को आशीर्वाद दिया और उससे वर मांगने के लिए कहा। इस पर सत्यवती ने उनसे अपनी माता के लिए एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुए कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हों तब तुम्हारी मां पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करना और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिए गए इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग-अलग सेवन कर लेना। इधर जब सत्यवती की मां ने देखा कि भृगु ने अपनी पुत्रवधु को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो उसने अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया।
इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्ति से भृगु को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधु के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिए अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगा और तुम्हारी माता की संतान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगा। इस पर सत्यवती ने भृगु से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पांच पुत्र हुए जिनके नाम थे- रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वानस और परशुराम।
पिता जमदग्नि की हत्या और परशुराम का प्रतिशोध-कथानक है कि हैहय वंशाधिपति कार्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रजरुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएं तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्निमुनि के आश्रम जा पहुंचा और देवराज इन्द्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया। कुपित परशुराम ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएं काट डालीं व सिर को धड़ से अलग कर दिया। तब सहस्त्रर्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति में उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गईं।
इस कांड से कुपित परशुराम ने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पूरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का विनाश किया। यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रक्त से स्थलत पंचक क्षेत्र के पांच सरोवर भर दिए और पिता का श्राद्ध सहस्त्रर्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋ चीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका। इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिए और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे।
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