क्यों सत्राजित ने भगवान श्रीकृष्ण पर लगाया था चोरी का इल्जाम? पढ़ें पूरी पौराणिक गाथा
भगवान ने भक्त के हृदय की भक्तिमणि को स्वीकार किया। भगवान शरीर को नहीं भाव को स्वीकार करते हैं। त्रेतायुग में मर्यादावतार है तो भक्त की अहमता ममता का हरण कर लिया। भगवान भक्ति और भावना को स्वीकार कर भक्त के हृदय में छिपी ममता और अहमता का हरण कर लेते हैं। यही इस प्रसंग का रहस्यपूर्ण तात्पर्य है।

स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध को संतों ने भगवान का हृदय स्वीकारा है। ईश्वर जब अवतरित होकर मनुष्य बनता है, तब सांसारिक कटाक्षों को भी स्वीकार करना उसकी बाध्यता होती है, फिर भी भगवान की कृपालुता उससे कम नहीं होती है, क्योंकि वे सत, चित और अखंडानंद हैं। उनका आनंदमय स्वरूप कभी खंडित नहीं होता, चाहे वे राम बनकर आएं या कृष्ण बनकर।
श्रीमद्भागवत के इसी स्कंध में एक विचित्र कथा आती है, जिसमें भगवान पर झूठा कलंक लगता है। विचित्रता तो यह है कि वे सांसारिक दृष्टि से उस कलंक को धोने के लिए प्रयासरत होते हैं। हमारे सबके लिए यह बहुत बड़ी शिक्षा है कि कलंक को बुद्धि से नहीं, अपितु प्रमाण और चरित्र के द्वारा समाप्त किया जाना चाहिए। श्रीकृष्ण लीला के लिए मथुरा को छोड़कर द्वारका में नए राज्य की स्थापना करके अपना कर्मसंन्यासयोग का दर्शन कराते हैं।
जरासंध की मृत्यु के बाद एक बार ऐसा लगा कि अब श्रीकृष्ण द्वारकाधीश होकर आनंद से रहेंगे, पर सांसारिक कलंक रूपी जरासंध तो हम संसारियों के ही नहीं, अपितु भगवान के पीछे भी लगा रहता है। संसार में किसी भी महिमामय सुकृती की सुकीर्ति ऐसी नहीं हुई, जिसको कुभाव और कुदृष्टि रखने वालों ने अपने तीक्ष्ण निंदा-बाणों से उसे बेध न दिया हो।
भगवान सूर्य ने अपने भक्त सत्राजित को उसकी उपासना से प्रसन्न होकर स्यमंतक नाम की एक मणि दी थी। नित्य स्वर्ण देने वाली मणि पाकर राजा सत्राजित को गर्व हो गया। श्रीकृष्ण ने कहा कि तुम इस मणि को उग्रसेन को दे दो, पर लोभ के कारण उसने भगवान की बात स्वीकार नहीं की।
श्रीकृष्ण का उद्देश्य लोककल्याणकारी था। मणि से प्राप्त सोना पाकर उग्रसेन को राज्य व्यवस्था हेतु नित्य आर्थिक सहायता हो जाती। भक्ति का उपयोग व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए करने वालों को भगवान की बात पसंद नहीं आती है।
व्यक्ति जिसे अपना मानता है, उसके प्रति ममता होती है। वही यहां हुआ। सत्राजित का छोटा भाई प्रसून उस मणि को गले में पहनकर घोड़े पर बैठकर जंगल में घूमने निकल गया। किसी सिंह ने प्रसून और घोड़े का वध कर मणि छीन ली। सिंह गुफा में जाता, उससे पहले ही ऋक्षराज जांबवान ने सिंह को मारकर मणि छीन ली और बच्चों को खेलने के लिए दे दी।
प्रसून के वापस महल में न लौटने पर सत्राजित ने कृष्ण पर आरोप लगा दिया कि मणि के लोभ से कृष्ण ने प्रसून को मरवा दिया। जबकि यह मिथ्या आरोप था। यदि श्रीकृष्ण का प्रस्ताव मानकर मणि उग्रसेन को दे दी गई होती तो न प्रसून मरता, न घोड़ा और न सिंह, पर होनी तो कुछ और ही थी।
द्वारका में चर्चा होने पर कृपालु श्रीकृष्ण अपने कुछ गणमान्य लोगों को लेकर जंगल में प्रसून को खोजने निकल पड़े। जंगल में शेर के पंजे देखकर समझ गए कि सिंह ने प्रसून और घोड़े को मार डाला। आगे एक अंधेरी गुफा के अंदर प्रवेश करने से पूर्व श्रीकृष्ण ने अपने साथियों को गुफा के बाहर ही प्रतीक्षा करने को कहा और स्वयं अंधेरी गुफा में अकेले प्रवेश कर गए। अंदर जाकर देखा तो कुछ बच्चे स्यमंतक मणि से खेल रहे थे। अनजान श्रीकृष्ण को देखकर जांबवान की पत्नी चिल्ला पड़ीं और जांबवान निकल आए।
श्रीकृष्ण और जांबवान का 28 दिन तक युद्ध चला। अंत में श्रीकृष्ण के तीव्र मुष्टि प्रहार से जांबवान का शरीर टूट गया, तब उन्हें अचानक भगवान के स्वरूप का ज्ञान उसी तरह हो गया जैसे लंका में प्रवेश करते समय हनुमान जी के मुष्टिका प्रहार से लंकिनी को अपने स्वरूप और इतिहास का ज्ञान हो गया था। जांबवान जी ने कहा कि अवश्य ही आप हमारे प्रभु श्रीराम हैं, जो इस समय श्रीकृष्ण रूप में प्रकट हुए हैं।
समुद्र तट पर किस प्रकार भगवान के भुवनमोहन स्वरूप को देखने के लिए समुद्र के सारे जलचर प्रकट हो गए थे और आपकी सारी सेना सहजता से समुद्र पार लंका पहुंच गई थी, आप वे ही राम हैं। भगवान ने अपने कोमल कर-कमल से उनके शरीर का स्पर्श किया और उनकी पीड़ा को हर लिया।
जांबवान जी ने स्यमंतक मणि हाथ में लेकर अपनी परम सुंदरी पुत्री जांबवती का हाथ भगवान कृष्ण को अर्पित कर दिया। जांबवती का अर्पण ही साधक के जीवन की वह स्थिति है, जब वह अपनी शक्ति के अभिमान की सीमा समझकर अपनी सबसे प्रिय कृति जांबवती के रूप में भक्ति मणि का अर्पण कर भगवान के चरणों में समर्पित हो जाता है।
उधर कृष्ण के प्रियजन 12 दिन गुफा के बाहर प्रतीक्षा कर दुखी मन से द्वारका लौट आए। श्रीकृष्ण के गुफा से बाहर न आने के समाचार से बसुदेव, देवकी, रुक्मिणी जी सहित संपूर्ण द्वारका शोकाकुल हो गई। देवी की आराधना के फल स्वरूप श्रीकृष्ण जांबवती के साथ मणि धारण करके लौटे। सत्राजित को स्यमंतक मणि लौटाई, तो सत्राजित का सिर लज्जा से झुक गया।
वह अपने इस पापकर्म से उबरने के लिए अपनी वेटी सत्यभामा को भगवान को अर्पित कर धन्य हो गया। सत्राजित स्यमंतकमणि भी वापस देने लगा, तब श्रीकृष्ण ने कहा- नहीं, यह तो सूर्य का प्रसाद तुम्हीं धारण करो, पर यह जो सोना देती है, इसे तुम मुझे दे दिया करो। यह भगवान की उदारता है, जो 14 भुवनों के स्वामी होकर भी थोड़े से सोने को स्वीकार कर सत्राजित को कलंक से उबार लेते हैं। भगवान के सब कार्य केवल भक्तों के परम कल्याण के लिए ही होते हैं।
सत्यभामा और जांबवती साधक के जीवन की वह भक्ति मणि हैं, जो भगवान को प्रिय हैं। त्रेतायुग में भगवान राम का मर्यादामय अवतार हुआ था तो बालि ने भगवान से हार स्वीकार कर अपनी अहमता भगवान के चरणों में अर्पित कर दी थी और पुत्र अंगद का हाथ भगवान के हाथ में दे दिया था।
द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण का लीलावतार है तो भगवान ने भक्त के हृदय की भक्तिमणि को स्वीकार किया। भगवान शरीर को नहीं, भाव को स्वीकार करते हैं। त्रेतायुग में मर्यादावतार है तो भक्त की अहमता ममता का हरण कर लिया। भगवान भक्ति और भावना को स्वीकार कर भक्त के हृदय में छिपी ममता और अहमता का हरण कर लेते हैं। यही इस प्रसंग का रहस्यपूर्ण तात्पर्य है।
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