जीवन प्रबंधन: भक्ति जीवन के प्रत्येक कर्म को पवित्र कर देती है, यहां जानें गूढ़ रहस्य
राजा निमि ने नवयोगीश्वरों से भागवतधर्म के बारे में पूछा। श्रीकवि ने बताया कि भागवतधर्म का अर्थ है मन, वचन और कर्म से किए गए सभी कार्यों को भगवान नारायण को समर्पित करना। यह समर्पण कर्मों को पवित्र कर देता है, अहंकार और स्वार्थ से मुक्ति दिलाता है, तथा जीवन में शांति और आनंद लाता है। यह धर्म किसी भी व्यक्ति द्वारा सहजता से अपनाया जा सकता है, क्योंकि यह बाहरी कर्मकांडों के बजाय हृदय की शुद्धता और भक्ति पर आधारित है।
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जीवन का प्रत्येक क्षण दिव्य और प्रत्येक श्वास भक्ति का अनुष्ठान बन जाता है
आचार्य नारायण दास (आध्यात्मिक गुरु, ऋषिकेश)। राजर्षि निमि लोकमंगल के उद्देश्य से ऋषि-मुनियों के साथ महान यज्ञ में संलग्न थे। इसी पुण्य काल में, परम पूज्य भगवान ऋषभदेव जी के 9 महाविरक्त संन्यासी पुत्रों का वहां पदार्पण हुआ। ये संतजन लोक में नवयोगीश्वर के नाम से सुविख्यात हैं, जिनके नाम हैं- कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन। यथा-
कविर्हरिरन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः।
आविर्होत्रोऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजनः॥
राजा निमि ने विनम्रता और श्रद्धाभाव से उनके समक्ष अपनी हृदयगत जिज्ञासा रखी। उन्होंने करबद्ध होकर उन महापुरुषों से पूछा, "हे महापुरुषो! कृपापूर्वक बताएं कि भागवतधर्म क्या है?" यह प्रश्न कोई साधारण प्रश्न नहीं था; यह समस्त धर्म-प्रणालियों का सार तथा जीवन की परम साधना का रहस्य जानने की गहन पिपासा थी। वहां उपस्थित नवयोगीश्वरों में से परम ज्ञानी श्रीकवि महाभाग ने इस गूढ़ प्रश्न का समाधान करते हुए, उपदेशित किया, हे राजन्! प्राणी मन, वचन और कर्मादि से जो कुछ भी करे, वह सब ईश्वर को समर्पित कर दे:
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्याऽऽत्मना वानुसृतस्वभावात्।
करोति यत् यत् सकलं परस्मै नारायणायेतिसमर्पयेत्तत्॥
इस सारगर्भित श्लोक का भावार्थ है, मनुष्य अपने शरीर (क्रिया), वाणी (कथन), मन (संकल्प-विकल्प), इंद्रियों (भोग), बुद्धि (निश्चय), अहंकार (आत्माभिमान) अथवा स्वाभाविक वृत्तियों से जो भी कर्म करे, उन कर्मों को वह भगवान नारायण के चरणों में समर्पित कर दे। यही सर्वश्रेष्ठ भागवतधर्म है। भक्ति का अद्वितीय रहस्य है: कर्म का प्रसाद बन जाना।
यह उत्तर भक्ति के अद्वितीय रहस्य को अपने भीतर समाहित किए हुए है। सामान्यतः मनुष्य अपने कर्मों को अहंकार और स्वार्थ से ग्रसित होकर करता है। इसी स्वार्थ-प्रेरित कर्म के परिणामस्वरूप वह बंधन और दुख का भागी बनता है। किंतु, यदि वही कर्म निष्काम भाव से और भगवान् के प्रति समर्पण की पवित्र भावना से किए जाएं, तो वही कर्म बंधन का कारण न बनकर, साधना और मुक्तिपथ बन जाते हैं।
भागवतधर्म का मूल तत्त्व यही है कि भक्ति जीवन के प्रत्येक कर्म को पवित्र कर देती है। भोजन भी यदि 'ईश्वरार्पण' भाव से किया जाए, तो वह प्रसाद बन जाता है। वाणी यदि केवल भगवन्नाम-संकीर्तन और सत्य में लीन हो, तो वह लोकमंगल का माध्यम बन जाती है। मन यदि निरंतर भगवान् की स्मृति में रमा हो, तो वह शांत और आनंदमय हो उठता है।
इस प्रकार, जीवन का कोई भी क्षेत्र इस व्यापक भक्ति से वंचित नहीं रहता। यही कारण है कि भागवतधर्म सर्वजन-सुलभ है। यह किसी सीमा में नहीं बँधता। इसमें न जाति का बंधन है, न वर्णाश्रम की कठोर सीमाएं। गृहस्थ हो या संन्यासी, पुरुष हो या स्त्री, विद्वान हो या अशिक्षित। सभी लोग इसे सहजता से अपना सकते हैं, क्योंकि यह धर्म बाह्य कर्मकांडों पर आधारित नहीं, अपितु हृदय की निर्मलवृत्ति और पवित्र भाव आधारित है।
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वास्तव में, भागवतधर्म का मर्म यही है –संसार के प्रत्येक कार्य को 'यह सब आपका ही है' इस भाव से भगवान् के चरणों में अर्पण कर देना। इस पवित्र समर्पण से जीवन का प्रत्येक क्षण दिव्य और प्रत्येक श्वास भक्ति का अनुष्ठान बन जाता है, इससे सामाजिक जीवन भी समादरणीय और जन-जन के लिए स्वतः अनुकरणीय हो जाता है। यह उत्कृष्ट विचार और भाव मनुष्य को केवल मोक्ष ही नहीं देता, अपितु उसे जीवन में शांति, पवित्रता और परम आनंद भी सहज ही उपलब्ध करा देता है।
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