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    Swami Vivekananda Thoughts: अनुभव करने की शक्ति से ही धर्म बनता है

    अनुभव करने की शक्ति से धर्म बनता है। सिद्धांत सूत्र तत्वज्ञान या नैतिक वचनों का जो ज्ञान आपके दिमाग में भरा है उससे कुछ अधिक मतलब नहीं। आप क्या हैं और आपने क्या अनुभव किया है ये ही मतलब की बातें हैं। हमने सूत्रों और सिद्धांतों का तो अध्ययन किया है पर अपने जीवन में अनुभूति या साक्षात्कार कुछ भी नहीं किया।

    By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 03 Dec 2023 11:37 AM (IST)
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    Swami Vivekananda Thoughts: अनुभव करने की शक्ति से ही धर्म बनता है

    स्वामी विवेकानंद। Swami Vivekananda Thoughts: अनुभव करना ही धर्म है। ईश्वर के विषय में आपकी जो कल्पना है, जब आप उसका अनुभव करने में समर्थ हो जाएंगे, तब मैं आपको ईश्वर का उपासक कहूंगा पर आपको मात्र शब्द की वर्तनी ही मालूम है, आप इससे अधिक और कुछ नहीं जानते। उस अवस्था में पहुंचने के लिए, जिसमें हम ईश्वर का अनुभव कर सकेंगे, हमें साकार वस्तु के माध्यम से जाना होगा-ठीक उसी तरह, जैसे कि बच्चे प्रथम साकार वस्तुओं का अभ्यास करके तदुपरांत क्रमश: भाववाचक की ओर जाते हैं।

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    यदि आप किसी बालक को दो पंजे दस बताते हैं, तो वह नहीं समझता, पर यदि आप उसे दस चीजें दें और दो-दो करके पांच बार उठाने से कैसे दस हुए, यह दिखा दें तो वह उसे ठीक से समझ लेगा। यह धीरे-धीरे चलने तथा देरी का तरीका है। हम उम्र में चाहे बूढ़े हों, संसार की सारी पुस्तकों का अध्ययन कर लिया हो, धर्म व आध्यात्मिक क्षेत्र में तो हम सब बच्चे ही हैं।

    अनुभव करने की शक्ति से धर्म बनता है। सिद्धांत, सूत्र, तत्वज्ञान या नैतिक वचनों का जो ज्ञान आपके दिमाग में भरा है, उससे कुछ अधिक मतलब नहीं। आप क्या हैं और आपने क्या अनुभव किया है, ये ही मतलब की बातें हैं। हमने सूत्रों और सिद्धांतों का तो अध्ययन किया है, पर अपने जीवन में अनुभूति या साक्षात्कार कुछ भी नहीं किया।

    अब हमें स्थूल या साकार रूप में विधि, मंत्र, स्तोत्र, संस्कार और अनुष्ठानों द्वारा प्रारंभ करना होगा। ये स्थूल विधियां हजारों होंगी। सबके लिए एक ही विधि होना आवश्यक नहीं है। किसी को मूर्ति में सहायता मिलती है और किसी को नहीं। किसी को बाहरी मूर्ति की आवश्यकता होती है और किसी को अपने मन में ही मूर्ति की कल्पना करने की आवश्यकता पड़ती है। मन में ही मूर्ति की कल्पना कर लेने वाला कहता है कि मैं उच्च श्रेणी का हूं, क्योंकि मानस पूजा ठीक है, बाहरी मूर्ति की पूजा करना निंदनीय है। मैं उसका विरोध करूंगा। जब मनुष्य गिरजाघर या मंदिर के रूप में मूर्ति बनाता है, तो वह उसे पवित्र समझता है। अत: मन अपना यह स्थूल अभ्यास भिन्न-भिन्न रूपों द्वारा करेगा और धीरे-धीरे हमें सूक्ष्म का ज्ञान प्राप्त होगा, सूक्ष्म का अनुभव होगा। एक ही विधि सबके लिए ठीक नहीं हो सकती। एक विधि मेरे लिए उपयुक्त हो सकती है, दूसरी किसी और के लिए। यद्यपि सभी मार्ग उसी ध्येय को पहुंचाते हैं, तथापि वे सभी सबके योग्य नहीं होते।

    साधारणत: यहां हम एक गलती और करते हैं। मेरा आदर्श आपके लायक नहीं है तो मैं उसे जबरदस्ती आपके गले क्यों मढूं? गिरजाघर बनाने का मेरा नमूना या स्तोत्र पाठ करने की मेरी विधि यदि आपको ठीक नहीं जंचती तो मैं उस संबंध में आप पर जबरदस्ती क्यों करूं? आप दुनिया में जाइए। प्रत्येक अबोध व्यक्ति यही कहेगा कि मेरी ही विधि ठीक है, अन्य सब विधियां आसुरी हैं।

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    संसार में मेरे सिवाय ईश्वर का और कृपापात्र पैदा ही नहीं हुआ, पर सभी विधियां अच्छी और उपयोगी हैं। मानव प्रकृति भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, अत: यह आवश्यक है कि धर्म भिन्न-भिन्न प्रकार का हो और जितने भी प्रकार के धर्म हों, उतना ही संसार के लिए भला है। यदि संसार में बीस प्रकार के धर्म हैं, तो बहुत अच्छा है और यदि चार सौ प्रकार के धर्म हो गए, तो और भी अच्छा, क्योंकि उस अवस्था में धर्म पसंद करने का अवसर तथा क्षेत्र अधिक रहेगा।

    अत: हमें तो धर्म तथा धार्मिक आदर्शों की संख्या बढ़ने पर उलटे प्रसन्न ही होना चाहिए, क्योंकि ऐसा होने से प्रत्येक मनुष्य को किसी न किसी धर्म पालन का अवसर मिलेगा तथा मानव जाति को और अधिक सहायता मिलेगी। ईश्वर करे, धर्मों की संख्या यहां तक बढ़े कि प्रत्येक मनुष्य को अपने लिए हर किसी के धर्म से अलग एक धर्म मिल जाए। भक्तियोग की यही कल्पना है।