Nirbhara Bhakti: भक्ति को पाने के बाद भी कुछ पाना बाकी न रहे, तो वह निर्भरा भक्ति है
भगवान श्रीराम ने भक्तिमयी शबरी को जो नवधा भक्ति के उपदेश दिए थे इस वर्ष आपने उन नौ प्रकार की भक्ति का क्रमश विश्लेषण पढ़ा। इसी नवधा भक्ति का सार है निर्भरा भक्ति जिसे गोस्वामी तुलसीदास जी ने भगवान से अपने लिए मांगा। क्योंकि इसी भक्ति से नवधा भक्ति की पूर्णता प्राप्त की जा सकती है। चलिए इसपर पढ़ते हैं स्वामी मैथिलीशरण जी के विचार।

स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। प्रथम भगति संतन्ह कर संगा... में ही भगवान की निर्भरा भक्ति का सार है, जिसको गोस्वामी जी विनय पत्रिका में हरि के समान गुरु को बताते हुए प्रथम भक्ति को निर्भरा का स्थान दे रहे हैं। सुंदरकांड में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि हे प्रभु राम! आप मुझे अपने चरणों में एकमात्र निर्भरा भक्ति दे दीजिए और ऐसी कृपा कीजिए कि मैं केवल आप पर ही निर्भर रहूं, संसार में किसी की निर्भरता पर आश्रित न रहूं।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे कामादि दोष रहितं कुरु मानसं च।। कामादि दोष से रहित इसलिए कहा कि काम में भी द्वितीय का आश्रय और नर्भरता है। यह वही भक्ति है, जो हनुमान जी ने भगवान से मांगी, जो आगे चलकर श्रीसीता जी ने हनुमान जी को दी। जब सीता माता कहने लगीं कि जाओ हनुमान, अब तुम पर हमारे प्रभु अपनी ओर से स्नेह करेंगे और तुम अजर अमर हो जाओ,
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहिं बहुत रघुनायक छोहू।।
करहिं कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।।
निर्भरता में प्रभु की ओर से कृपा है और हनुमान जी की ओर से चरम पुरुषार्थ है। जिस पुरुषार्थ में कर्तृत्त्व न हो, वही निर्भराभक्तियुक्त कर्तृत्त्व रहित पुरुषार्थ है।
अंत में हनुमान जी प्रभु पर ऐसे निर्भर हो गए कि अंत में भगवान को ही हनुमान जी के प्रति अपनी निर्भरता स्वीकार करनी पड़ी।
प्रति उपकार करउं का तोरा।
सम्मुख होइ न सकत मन मोरा।।
सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनु धारी।।
जिस अनपायनी भक्ति को पाने के पश्चात कुछ भी पाना बाकी न रहे, वह निर्भरा भक्ति है। जिसे पाकर हनुमान जी धन्य हो गये। भगवान के प्रति इस निर्भरता को गोस्वामी जी 15 भागों में विभाजित करके विनय पत्रिका में भगवान के चरणों में अनन्य प्रेम तथा निर्भरता को शास्त्रीय रूप देते हुए कहते हैं, संसार की सारी निर्भरताएं आश्रित कर देती हैं, पर भगवान और गुरु के प्रति निर्भरता मुक्त कर देती है।
गोस्वामी तुलसीदास जी की अंतिम 12वीं रचना है विनय पत्रिका !! तुलसी ने गुरु महिमा के अनंत स्वरूप का वर्णन विनय पत्रिका में किया है। वे कहते हैं हे मेरे मन! तू व्यर्थ मिथ्याभिमान को छोड़कर उन गुरुदेव के चरणारविंदों का भजन कर जिनकी सेवा करने से आंदघन प्रभु हरि की सहज प्राप्ति हो जाती है।
फाल्गुन माह में शुक्लपक्ष की 15 तिथियों को क्रमिक रूप से भगवत्प्राप्ति के साधनों के रूप में गिनाते हुए अंत में तुलसी सबका सार लिखते हुए कहते हैं -
- प्रतिपदा - जितने भी भगवद्विषयक साधन हैं, सबका फल है भगवान के चरणों में प्रेम, भगवान के प्रति प्रेम हुए बगैर भगवान हमसे बहुत दूर लगेंगे। इसके लिए गुरु सेवा परमावश्यक है।
- द्वितीया - जीव और ईश्वर के बीच का जो द्वैत भाव हमने अपने मन में बसा रखा है बस अहं और मोह मान्यता से अलग होकर एक एकत्त्व की अद्वितीय निष्ठा ही द्वितीया है।
- तृतीया - सत्त्व, रज, तम यह त्रिगुणात्मक सृष्टि में उसके अधिष्ठान भगवान नारायण बालमुकुंद को ही देखें और किसी भी गुण के अभिमान में न फंसकर नित्य शुद्ध परात्पर राम में स्थित रहें, वही तृतीया है।
- चतुर्थी - मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार, इन चार के समुदाय में हमने जो अनेक संस्कारों और मान्यताओं में अपने मन को फंसा रखा है, साधक का उससे ऊपर उठकर मन बुद्धि चित्त और अहंकार इन चारों का दृष्टा बन जाना चाहिए, तब जीवन में जो विवेक की प्राप्ति होगी, वही विज्ञान उसे सत्, चित् और आनंदमय बना देगा और साधक आत्मस्वरूप में स्थित हो जाएगा। यही साधक के अनुष्ठान की चतुर्थी है।
- पंचमी - पांच कर्मेंद्रियों से ऊपर उठना पंचमी है। नहीं तो ये ले जाकर अंधेरे कुंए में गिरा देंगी।
- षष्ठी - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर षडोविकार के स्थान पर साधन को षड संपत्तियों शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान में प्रवेश करना चाहिए। तभी साधक इस दुर्गम भव सागर को पार कर सकेगा।
- सप्तमी - रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा तथा शुक्र इन सात पदार्थों से मनुष्य का शरीर बना है। आध्यात्मिक अर्थों में ये सात आवरण हैं, जिनका अनावरण आवश्यक है। ये हमें ईश्वर का वरण नहीं करने देते हैं। सात आवरणों से ऊपर उठे बिना सत्व में प्रवेश संभव नहीं है। यही सात रंग हैं, सात स्वर हैं, सात दिन हैं। अष्टमी रूपी जन्माष्टमी में भी भगवान प्रकट होते हैं।
- अष्टमी - श्रीरामचंद्र प्रभु अपरा जड़ प्रकृति पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार से परे हैं, साधक के जीवन में कामना का आधार जब तक चैतन्य ईश्वर नहीं होगा, तब तक वह जड़ता के कार्य ही करता रहेगा।
- नवमी - नवमी रिक्ता तिथि थी, पर भगवान ने उसकी रिक्तता समाप्त कर उसी में प्रकट होकर नौमी को पूर्णता प्रदान कर दी। नौ का पहाड़ा पढ़ने पर नौ का अभाव कभी नहीं होता है, उसी प्रकार भक्त भगवान से जुड़कर उन्हीं के तदरूप हो जाता है।
- दसवीं - पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, दस इंद्रियों से युक्त शरीर को भगवद्विषयक बनाकर इसे अपनी सेवा सामग्री बना लेना ही जीवन की धन्यता है।
- एकादशी - दशेंद्रिय के साथ जब मन जुड़ जाता है, तब साधक की एकादशी सिद्ध होती है। तब भगवान के चरणों में प्रेम, उनकी स्मृति, उनकी कृपा की सुसमीक्षा ही जीवन और दिनचर्या हो जाती है।
- द्वादशी - द्वादशी को भगवान के कृपा प्रसाद को ग्रहण करे अर्थात सत् को स्वीकार करें और असत् को त्याग दे, यही एकादशी का पारण है।
- त्रयोदशी - मन समेत दशेंद्रिय से जाग्रत, स्वप्न और सुशुप्ति में कभी भी भगवत्चिंतन के अतिरिक्त और कुछ करे ही नहीं? “तजि हरि भजन काज नहिं दूजा” अर्थात् प्रत्येक घटना, उपलब्धि, कार्य, परिणाम में प्रभु कृपा के अतिरिक्त और कुछ न माने तो जागते, उठते, सोते केवल भगवान का ही चिंतन होगा। यही त्रयोदशी है।
- चतुर्दशी - दशेंद्रियों के केंद्र शरीर और अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ की उपलब्धियों को छोड़ जो भरत की तरह भगवान के चरणों में प्रेम तथा अनुरक्ति की ही याचना करे, उसकी चतुर्दशी सिद्ध हो जाएगी और वह कृपा की पूर्णिमा की ओर बढ़ेगा। पूर्णिमा माह में एक बार आती है, पर श्रीरामचंद्र की कृपा हो जाए, तो वह हर दिन और हर तिथि और प्रत्येक्ष पक्ष में रहती है। वहां अमावस्या कभी नहीं आती है, जैसे श्रीराम के साथ पूर्णचंद्र गौर वर्ण शारदीय चंद्र की तरह श्री लक्ष्मण सदा रहते हैं।
- पूर्णिमा - फाल्गुन माह की पूर्णिमा के दिन ही होली का त्योहार होता है। तात्पर्य यह है कि जैसे होली में सब लोग सब रंगों में मिल जाते और भगवान के गुणों का गान करके आनंद करते हैं, उसी प्रकार साधक को अपनी भाव सरिता को भगवान की कृपा के समुद्र में मिला कर शाश्वत अनंतानंद को प्राप्त करना चाहिए।
गोस्वामी जी कहते हैं भक्ति का जो सुख है, वह अनुपम है। पर वह संत कृपा से ही अनुकूल होता है।
भगति तात अनुपम सुख मूला।
मिलहिं जो संत होहिं अनुकूला।।
संसार समुद्र को पार करने के लिए गुरुदेव के चरण ही वे नौका बन जाते हैं, जिनका सहारा लेकर हम जैसे वेसहारा भी सहारा बन जाते हैं। गुरु और भगवान में निर्भर होना ही सालोक्य, सायुज्य और सारूप्य मुक्ति है, जो भक्ति का चरम लक्ष्य है।
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