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    क्या है नर और नारायण में संबंध, जानिए स्वामी मैथिलीशरण जी के विचार

    Updated: Mon, 30 Dec 2024 11:11 AM (IST)

    नए वर्ष में यह शोध करें कि जिस पर हम शोध कर रहे हैं उसका निर्माण किसने किया और जो शोध कर रहा है उसमें इस प्रज्ञा को किसने जन्म दिया? इससे समझ आ जाएगा कि नर और नारायण अलग नहीं वस्तुत एक ही हैं। एक दृश्य है एक दृष्टा है। दोनों की सत्ता एक-दूसरे पर आधारित है। स्वयं का शोध करना अध्यात्म है और पदार्थ का शोध करना विज्ञान।

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    नर और नारायण के बीच संबंध पर स्वामी मैथिलीशरण जी के विचार।

    स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। पुराना कुछ है ही नहीं, न ही नया कुछ है। समझ आ जाए तो पुराना ही नया लगता है। जिसे हम वर्ष, महीना, दिन कहते हैं, सूर्य, आकाश, जल, अग्नि, पृथ्वी और वायु कहते हैं, उन्हें पता ही नहीं है कि कोई नया वर्ष आ गया। वे ईश्वर की शक्ति से नियंत्रित होने के कारण अपने मैं को भूले हुए हैं। काल और दिशा आदि का विभाजन तो मात्र विधि-व्यवस्था चलाने की पद्धति है। सृष्टि संचालन में इसका अपना महत्व और योगदान है, पर व्यवस्थागत विभाजन हमें विभाजित न कर दे। सबमें ईश्वर मानकर हम ईश्वर की भक्ति में लगकर प्राणिमात्र की सेवा करें। सुख लें और सुख दें। अपने को मिथ्या कर्तापन के अहंकार के कारण दुःख लेने और दुःख देने का कारण न बनें। हम सत हैं, हम चित हैं, हम आनंद हैं।

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    वेद जब पुराण बने, निर्गुण जब सगुण बना, निराकार जब साकार हुआ, तब नर-और नारायण संज्ञा की उत्पत्ति हुई। सर्वशक्तिमान परब्रह्म परमात्मा श्रीराम विभीषण से यह कहने में संकोच नहीं करते हैं कि तुम जैसे संत मुझे बहुत प्रिय हैं और तुम्हारे कारण ही शरीर धारण करता हूं। यही है नर और नारायण का संबंध और भावना। संदर्भ रूप में श्रीरामचरितमानस को केंद्रीय मानने पर हनुमान जी से जब श्रीराम का प्रथम मिलन हुआ, तब भगवान ने नर-नारायण के एकत्व की ही बात कही कि सचराचर जगत में मुझे देखकर ही व्यक्ति व्यवहार करे और यही निश्चयात्मिका बुद्धि रखे तो उसको सहज रूप से मेरी अनन्यता प्राप्त हो जाएगी।

    सो अनन्य बस जाके मति न टरइ हनुमंत।

    मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत।।

    रामराज्य की स्थापना के पश्चात बंदरों को अयोध्या से विदा करते समय भगवान ने यही कहा :

    अब गृह जाहु सखा सब भजहु मोहि दृढ़ नेम।

    सदा सर्वगत सर्वहित जानि करेहु अति प्रेम।।

    सर्वगत और सर्वहित में कार्य करना ही नर और नारायण में अद्वैत को सिद्ध करता है। सगुण उपासना का तो प्राण ही परहित है, क्योंकि जो मेरा परम आत्मा (परमात्मा) है, वह सब में परिव्याप्त है। जो साधन और सामर्थ्य हमें प्राप्त है, वह सब उसी में है तथा उसी की कृपा से हमें इसलिए प्राप्त है, ताकि हम उस अनंत को अनंत में वितरित और प्रसारित कर दें। नदी असीम नहीं हो सकती, पर अपनी सीमित क्षमता को असीम समुद्र में स्वयं का विलय करके संसार के हर कोने में बादल बनकर बरस तो सकती है! नर त्वम है नारायण तत है। बिना नर के नारायण की कृपा और क्षमता का न तो रस मिलेगा और न ही ज्ञान होगा। नारायण को त्वम बने बिना शक्ति और कृपा विस्तार का स्थान ही नहीं मिलेगा। यही “तत्त्वमसि” है, यही नर और नारायण की सरल व्याख्या है।

    भगवान राम ने बार-बार सर्वहित, सर्वसुख की बात कहकर और उसको जीवन में करके यही बताया कि जो सुख देने में है, वह लेने में नहीं है। इसीलिए श्रीराम आनंद सिंधु और सुखराशि हैं, जो अखिल जगत को सुख और विश्राम देते हैं, जिसका कोई पर है ही नहीं, सब स्व ही है, वही सबको सुख दे सकता है। जैसे हम अपने अंगों की सेवा करते हैं पर उनके नाम रूप और स्थान भिन्न हैं उसी प्रकार संसार में जो लोग और प्राणी हैं वे सब सृष्टि के अंग हैं, सब में ईश्वर समाहित है मात्र यह ज्ञान और यही धारणा सबमें शुद्ध सनातन भाव की सृष्टि कर सकती है।