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    Swami Dayananda Saraswati Jayanti 2023: महर्षि दयानंद सरस्वती जन्म जयंती, "सत्य के उद्घोषक"

    By Jagran NewsEdited By: Shantanoo Mishra
    Updated: Mon, 06 Feb 2023 03:52 PM (IST)

    Swami Dayananda Saraswati Jayanti 2023 स्वामी दयानंद सरस्वती वेदों के माध्यम से संपूर्ण विश्व के कल्याण की आकांक्षा रखते थे। सामाजिक सांस्कृतिक और राष्ट्रीय उन्नति में सत्य के उद्घोषक स्वामी जी के दर्शन-दृष्टि आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।

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    Swami Dayananda Saraswati Jayanti 2023: जानिए स्वामी दयानन्द सरस्वती जी से जुड़ी कुछ रोचक बातें।

    डा. सुधीर कुमार (प्रोफेसर, संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन, जेएनयू, नई दिल्ली) | Swami Dayananda Saraswati Jayanti 2023: 19वीं सदी का समय सामाजिक, राष्ट्रीय चेतना व पुनर्जागरण की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं उपादेय काल रहा है। इस काल में अनेक महापुरुषों ने अपने जीवन की आहुति प्रदान कर राष्ट्र व समाज में एक नयी चेतना का विस्तार किया तथा भारत को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया। उन्हीं महापुरुषों में अग्रणी थे स्वामी दयानंद सरस्वती, जिनके विचारों से प्रभावित कोटिशः जन स्वतंत्रता आंदोलन व राष्ट्रीय उत्थान में योगदान देने को तत्पर हुए। स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1824 ई. को गुजरात के काठियावाड़ जिले के टंकारा ग्राम के एक समृद्ध ब्राह्मणकुल में हुआ था। पिता श्री कर्षन तिवारी व माता अमृताबाई थीं। स्वामी जी के बचपन का नाम मूलशंकर था। वे बचपन से ही अत्यंत प्रतिभावान थे। उन्होंने बाल्यकाल में ही यजुर्वेद व अन्यान्य शास्त्रों को कंठस्थ कर लिया था। बचपन में महाशिवरात्रि की एक घटना से उनके मन में कैवल्य के भाव प्रस्फुटित हुए और फिर वे सच्चे शिव की खोज में घर बार त्याग निकल पड़े। वर्षों तक संतों-महात्माओं से मिलकर उन्होंने योगादि की शिक्षा-दीक्षा ली। इसी बीच स्वामी पूर्णानंद सरस्वती से संन्यास दीक्षा ग्रहण कर वे स्वामी दयानंद सरस्वती कहलाए।

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    अनेक गुरुओं, संतों, महात्माओं से शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करते हुए स्वामी जी मथुरा पहुंचे, जहां प्रज्ञाचक्षु महात्मा विरजानंद दंडी से मिलकर इसकी उनकी सच्चे गुरु की खोज पूर्ण हुई। वहां गुरु के सान्निध्य में वेद वेदांगादि ग्रंथों की शिक्षा पूर्णकर जब गुरुदक्षिणा की वेला आई, तब दयानंद एक मुट्ठी लौंग लेकर गुरु के समक्ष उपस्थित हुए। गुरुवर विरजानंद ने तब अपने इस प्रियशिष्य से कहा कि दयानंद, मुझे आपसे यह दक्षिणा नहीं चाहिए। यदि दक्षिणा देना ही चाहते हो तो इस समाज में व्याप्त अविद्या, पाखंड, अंधविश्वास, अनाचार, दुराचार, कुरीतियों व कुप्रथाओं को दूर कर सत्य, ज्ञान, सदाचार व सत्प्रथाओं का प्रसार करो। यही मेरी सच्ची गुरुदक्षिणा होगी। स्वामी दयानंद उसी समय गुरुदक्षिणा की पूर्ति के लिए निकल पड़े।

    गुरु को दिए वचन को पूर्ण करने हेतु स्वामी जी इस समरभूमि में उतर पड़े। उनके प्रमुख अस्त्र बने वेद और सदा शिव (परमात्मा) के प्रति अगाध श्रद्धाभक्ति। उन्होंने अपना लक्ष्य राजा से लेकर समाज के अंतिम छोर पर स्थित व्यक्ति तक पहुंचने को बनाया। उनका वैदिक उद्घोष था 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' (संपूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाओ) तथा 'वेदों की ओर लौटो'। उन्होंने एक ओर समाज में व्याप्त कुरीतियों, ढोंग, पाखंड व अंधविश्वासों का प्रबल विरोध किया, वहीं सभी के लिए वेदादि के पठन-पाठन के द्वार खोलकर सद्विद्या, सदाचार व सन्मार्ग का पथ प्रदर्शन भी किया। समाज को सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान करने के लिए उन्होंने वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था का प्रबल अनुमोदन किया।

    स्वामी जी कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हैं तथा जाति प्रथा का विरोध करते है। वे गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार विवाह पद्धति का समर्थन करते हैं। इसके लिए हमें स्वामी जी द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रंथ 'संस्कारविधि' का अवलोकन करना चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में स्वामी जी ने वैदिक आर्ष पद्धति (प्राचीन ऋषियों की शिक्षा प्रणाली) का समर्थन किया, जिसमें बालक व बालिका सभी को अनिवार्य रूप से शिक्षित करने का प्रविधान है। उन्होंने अथर्ववेद के इस मंत्र 'ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्' तथा गोभिलगृह्यसूत्रादि के वचनों को प्रमाण रूप में प्रस्तुत कर कन्याओं को भी शिक्षा, यज्ञोपवीतादि सभी संस्कार तथा वैदिक कर्म करने-कराने का समान अधिकार दिया, इसका सुदृढ़रूप से प्रतिपादन किया तथा कन्याओं के लिए भी गुरुकुलों की स्थापना करवाई।

    स्वामी जी ने अपने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में सभी के आचार व्यवहारों, शिक्षा, धर्म, राजनीति तथा कर्त्तव्यों का समुचित प्रबंध निरूपित किया है, जिसको वे अपने जीवनपर्यंत व्यवहार में यथावत पालन भी करते रहे। उन्हीं के बतलाये मार्ग पर चलते हुए आज भी कई गुरुकुल व डीएवी कालेज (दयानंद एंग्लो वैदिक कालेज) समाज में लोगों को शिक्षित व संस्कारित करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। उस समय वेद तथा वैदिक कर्मों व मान्यताओं के नाम पर विविध आडंबर समाज में प्रचलित हो चुके थे। स्वामी जी ने उन सबका कठोरता से खंडन किया तथा सत्यस्वरूप सबके समक्ष उपस्थापित किया। स्वामी जी अपने ग्रंथ 'यजुर्वेद भाष्य' तथा 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' के माध्यम से वेदों व वैदिक मान्यताओं के वैज्ञानिक स्वरूप को सामने लाए। उन्होंने समाज की अनेक कुप्रथाओं की निस्सारता वैदिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में प्रतिपादित की और उनके निर्मूलन में सफल हुए। उन्होंने माना कि अशिक्षा ही संपूर्ण अनर्थों का मूल है, अत: सभी को शिक्षित व विचारशील बनाने का प्रयत्न करते रहे। इसके परिणामस्वरूप बाल विवाह, अनमेल विवाह, सती प्रथा इत्यादि कुप्रथाएं समाज से दूर होने लगीं।

    स्वामी जी स्वधर्म, स्वराज्य, स्वभाषा व स्वसंस्कृति के प्रबल परिपोषक थे। उस समय भारत विदेशी परतंत्रता के दंश झेल रहा था। ऐसे में स्वामी जी कैसे व्यथित नहीं होते? उन्होंने देखा और पाया कि कई समस्याओं का मूल पराधीनता ही है। इसके निर्मूलन से कतिपय समस्याएं स्वत: निर्मूल हो जाएंगी। अतः उन्होंने संपूर्ण भारत में भ्रमण कर लोगों मे राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने का काम किया।

    स्वामी जी वेदों में 'अघ्न्या' (न मारने योग्य) कही जाने वाली गायों की त्रासद स्थिति से अत्यंत दुखी थे। उन्होंने इसके लिए जनजागरूकता का प्रसार किया तथा गायों के महत्त्व को प्रत्येक रूप में उपयुक्त दर्शाने के लिए 'गोकरुणानिधि' नामक ग्रंथ की रचना की। स्वामी दयानंद ने वर्ष 1875 में वैदिक ज्ञान के प्रचार-प्रसारार्थ ही मुंबई में 'आर्यसमाज' की स्थापना की तथा अमर ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' का प्रणयन किया। यह ग्रंथ भारतीय संस्कृति को जानने-समझने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। दयानंद जी विचारों से अनेक महापुरुष प्रभावित हुए, जिन्होंने समाज को नई दिशा प्रदान की। इनमें मुख्यतः स्वामी श्रद्धानंद, प. गुरुदत्त विद्यार्थी, श्याम कृष्णन वर्मा, लाला लाजपतराय, लोकमान्य तिलक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर, मदन लाल ढींगरा, महात्मा हंसराज आदि शामिल हैं। ये कार्य तत्कालीन परतंत्र भारत में बहुत कठिन थे। यह हम इसी से अनुमान लगा सकते हैं कि उन्हें विविध रूपों में 17 बार विष दिया गया, जिनका उपशमन उन्होंने अपनी यौगिक क्रियाओं के बल पर करने का प्रयास किया। कई बार उन्हें अपनों का बैरी तक बनना पड़ा, लेकिन वे सत्य के मार्ग से विचलित नहीं हुए। अंत में षड्यंत्रपूर्वक विरोधियों ने पुन: तीक्ष्ण विष देकर स्वामी जी की प्राणलीला समाप्त कर दी। वर्ष 1883 दीपावली के दिन 'ईश्वरेच्छा बलीयसी' अर्थात् हे ईश्वर! तेरी इच्छा पूर्ण हो', कहते हुए यह दिव्यज्योति परम ज्योति में विलीन हो गई।