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Swami Dayananda Saraswati Jayanti 2023: स्वराज्य के आराधक दयानंद सरस्वती

Swami Dayananda Saraswati Jayanti 2023 स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने वेद के ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने के लिए 1875 में आर्य समाज की स्थापना की और वेदों को समस्त ज्ञान एवं धर्म के मूल स्रोत तथा प्रामाणिक ग्रंथों के रूप में स्थापित किया।

By Jagran NewsEdited By: Shantanoo MishraPublished: Mon, 06 Feb 2023 04:48 PM (IST)Updated: Mon, 06 Feb 2023 04:48 PM (IST)
Swami Dayananda Saraswati Jayanti 2023: स्वराज्य के आराधक दयानंद सरस्वती
Swami Dayananda Saraswati Jayanti 2023: स्वामी जी ने परंपरा व संस्कृति से जोड़ने का मंत्र प्रदान किया।

नई दिल्ली, आचार्य दीप चन्द भारद्वाज, "आध्यात्मिक विषयों के अध्येता" | Swami Dayananda Saraswati Jayanti 2023: भारत की उत्कृष्ट वैदिक संस्कृति एवं सभ्यता की गरिमामयी विरासत, जो मध्यकाल के तमसाच्छन्न युग में लुप्तप्राय हो गई थी, उसे स्वामी दयानंद सरस्वती ने वैदिक संस्कृति के माध्यम से पुनर्जीवित किया। वेदों के प्रचार-प्रसार हेतु उन्होंने बंबई (अब मुंबई) में 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। महर्षि दयानंद जी ने वेदों को समस्त ज्ञान एवं धर्म के मूल स्रोत तथा प्रामाणिक ग्रंथों के रूप में स्थापित किया। उन्होंने भारतीय जनमानस को पुनः वेदों की ओर लौटने का आह्वान किया। महात्मा गांधी ने भी स्वामी दयानंद के स्वदेशी के मूल मंतव्य को स्वीकार किया। वे स्वराज्य के सर्वप्रथम संदेशवाहक तथा उद्घोषक थे। स्वाधीनता को स्वामी जी ने राष्ट्र के विकास का मूल साधन स्वीकार किया है। 'अर्चन् ननु स्वराज्यम्' अर्थात हम स्वराज्य के आराधक बनें, ऐसा कहने वाले स्वामी दयानंद अपनी मातृभूमि को पराधीनता में जकड़ा देख कर चुप रहें, ऐसा संभव नहीं था। उन्होंने अपने चिंतन और वैचारिक क्रांति के माध्यम से राष्ट्रीयता की प्रचंड ज्वाला का श्रीगणेश किया, जिससे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार हुई।

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वेद मंत्रों के माध्यम से स्वामी दयानंद ने युवा वर्ग के मानस पटल पर मातृभूमि के प्रति बलिदान की ज्वाला उत्पन्न की : 'माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्या:' अर्थात यह भारत भूमि मेरी मां है और मैं उसका पुत्र हूं। 'वयं तुभ्यं बलिहृत: स्याम' अर्थात हे मातृभूमि, हम तुझ पर सदा ही बलिदान होने के लिए तैयार रहें। 'राष्ट्रदा राष्ट्रं मे देहि' अर्थात हे ईश्वर राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना से मुझे ओतप्रोत करो। अपने कालजयी ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में दयानंद ने भारत के प्राचीन स्वर्णिम ऐतिहासिक महत्व का दिग्दर्शन करवाया। इसमें उन्होंने अपने विशाल शास्त्र अध्ययन, चिंतन, मनन तथा तर्क के बल पर वैदिक संस्कृति की पुनर्स्थापना की। उन्होंने संस्कार विधि लिखकर भारतीय जनमानस को अपनी मिट्टी की परंपरा व संस्कृति से जोड़ने का मंत्र प्रदान किया। वेद विषयक तथा ईश्वर संबंधी गूढ़ रहस्यों को उन्होंने सरलता के साथ प्रस्तुत किया। बाल्यकाल से लेकर बालक के सर्वांगीण विकास की संपूर्ण रूपरेखा तथा संतानों को श्रेष्ठता के सूत्र में पिरोने की वैदिक पद्धति का उल्लेख किया। पंच महायज्ञों के माध्यम से उन्होंने संस्कृति को संजीवनी प्रदान की।

स्वामी जी का मानना था कि मनुष्य के व्यक्तित्व में समाहित आसुरी, निकृष्ट प्रवृत्तियों का प्रतिकार आध्यात्मिक चेतना द्वारा ही संभव है। संपूर्ण भारतवर्ष को दयानंद ने वैदिक ग्रंथों के उपदेशों के माध्यम से सुदृढ़ता तथा समता के सूत्र में बांधने का उत्कृष्ट कार्य किया। उन्होंने अपने भाषणों में युवा वर्ग के हृदय में उत्कृष्ट नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का सूत्रपात किया। उनका मानना था कि आध्यात्मिक जागरण द्वारा ही जनकल्याण का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। पुरुषार्थ से हीन प्रमाद व अविद्या के अंधकार से पथभ्रष्ट हुई युवा शक्ति को उन्होंने मानसिक तथा आत्मिक बल से परिपूर्ण किया। उन्होंने कहा, 'उठो, तुम सब ईश्वर की संतान हो। वेद की शिक्षाओं के माध्यम से अपने अंतःकरण में आत्मिक बल तथा आध्यात्मिक बल का संचार करो। संयम, साधना और तप के मार्ग पर चलकर अपनी शारीरिक शक्ति तथा आत्मिक शक्तियों को परिष्कृत करो।' स्वामी जी का मानना था कि सशक्त भारत के निर्माण के लिए युवाओं को श्रेष्ठ शिक्षा पद्धति के माध्यम से ब्रह्मचर्य के तप में तपाकर ही राष्ट्र के स्वर्णिम स्वाभिमान के मार्ग को प्रशस्त किया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने गुरुकुल पद्धति का विधान किया, ताकि राष्ट्र का प्रत्येक युवा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों से सुसज्जित होकर वैदिक संस्कृति की रक्षा के लिए तत्पर हो।

अपने ओजस्वी उद्बोधनों से दयानंद जी ने युवा शक्ति के मानस पटल पर आत्म गौरव के भाव जाग्रत किए। क्रांतिकारी लाला हरदयाल ने लिखा कि, 'ऋषि दयानंद ने अपने तप से भारतवर्ष रूपी वृक्ष का जलसिंचन किया। स्वामी जी ने नवयुवकों के मन में त्याग, राष्ट्रभक्ति तथा परोपकार की ज्योति प्रज्वलित की।' इस निर्भीक संन्यासी ने विदेशियों के आगे अपने स्वराज्य के चिंतन को प्रस्तुत किया। वर्ष 1873 में तत्कालीन अंग्रेज अधिकारी नार्थब्रुक ने स्वामी जी से कहा कि आप अपने उपदेशों में ईश्वर से प्रार्थना में अंग्रेजी राज्य सदैव रहे, इसके लिए भी प्रार्थना कीजिएगा। स्वामी दयानंद ने निर्भीकता के साथ उत्तर दिया कि स्वाधीनता मेरी आत्मा और भारतवर्ष की आवाज है, यही मुझे प्रिय है। मैं विदेशी साम्राज्य के कुशल-क्षेम की कदापि प्रार्थना नहीं कर सकता। उन्होंने अपनी वैचारिक क्रांति से भारत की स्वाधीनता का मार्ग प्रशस्त किया। लाल बहादुर शास्त्री जी ने लिखा है कि, 'स्वामी दयानंद ने स्वराज्य और स्वदेशी स्वावलंबन की इन्होंने ऐसी प्रचंड ज्वाला जलाई, जिससे इंडियन नेशनल कांग्रेस के निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार हुई।'

जाति, संप्रदाय, पंथ की आपसी ईर्ष्या, द्वेष को त्याग कर संपूर्ण जनमानस को राष्ट्र निर्माण के प्रति प्रेरित किया। उन्होंने बाल विवाह, पर्दा प्रथा, जाति प्रथा, छुआछूत आदि अनेक सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध जीवनपर्यंत संघर्ष किया। फ्रेंच लेखिका रोम्यां रोला ने महर्षि दयानंद के अछूतोद्धार के कार्यों की प्रशंसा करते हुए कहा है, 'महर्षि दयानंद ने वेद के दरवाजे संपूर्ण मानव जाति के लिए खोले थे। उनके लिए संपूर्ण मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं। दलितों, शोषितों के अधिकारों का स्वामी दयानंद जैसा प्रबल समर्थक कोई नहीं हुआ।' स्वामी दयानंद हर युग में प्रासंगिक रहेंगे, क्योंकि विज्ञान और तकनीक कितनी भी उन्नति कर ले, मनुष्य की धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की अनुभूति वही रहेगी, जो अनादि काल से चली आ रही है। महर्षि का दर्शन हर युग के मानव को दिशाबोध प्रदान करता रहेगा।


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