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    श्री श्री रविशंकर जी महाराज

    By Edited By:
    Updated: Mon, 29 Apr 2013 03:32 PM (IST)

    श्री श्री रविशंकर का जन्म 13 मई 1956 को तमिलनाडु के पापनासम में हुआ था। चार वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने श्रीमद्भागवतगीता कंठस्थ कर ली थी। बचपन में घंटों ध्यान में बैठना और पूजा करना इनके प्रिय खेल थे। सत्रह वर्ष की आयु में इन्होंने आधुनिक विज्ञान और वेदों का अध्ययन सम्पन्न किया। उसके बाद इन्होंने एंकात साधना और सत्य संगति में कई वर्ष बिताये।

    श्री श्री रविशंकर का जन्म 13 मई 1956 को तमिलनाडु के पापनासम में हुआ था। चार वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने श्रीमद्भागवतगीता कंठस्थ कर ली थी। बचपन में घंटों ध्यान में बैठना और पूजा करना इनके प्रिय खेल थे। सत्रह वर्ष की आयु में इन्होंने आधुनिक विज्ञान और वेदों का अध्ययन सम्पन्न किया। उसके बाद इन्होंने एंकात साधना और सत्य संगति में कई वर्ष बिताये।

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    इनके पिता आरएसवी रत्‍‌नम ने इनकी आध्यात्मिक रुचि को देखते हुए इन्हें महर्षि महेश योगी के सान्निध्य में भेज दिया। महर्षि चाहते थे कि वे पहले विज्ञान विषय से अपनी शिक्षा पूरी कर लें। बाद में रवि महर्षि के अनुगामियों से जुड़ गए। वे अपना अधिकतर समय महर्षि के दिल्ली स्थित चैरिटी में वेद पढ़ाने और यज्ञों के आयोजन में बिताते थे। महर्षि उन्हें अपने साथ स्विट्जरलैंड भी ले गए। महर्षि अक्सर उनके बिना बैठकों की शुरुआत नहीं करते थे। महर्षि के अनेकों शिष्यों में से रवि उनके सबसे प्रिय थे।

    1982 में रवि शंकर दस दिन के मौन में चले गए। कुछ लोगों का मानना है कि इस दौरान वे परम ज्ञाता हो गए थे और उन्होंने सुदर्शन क्रिया (श्वास लेने की तकनीक)की खोज की। इसके बाद श्री श्री ने दुनिया भर में सुदर्शन क्रिया के विस्तार के लिए आर्ट ऑफ लिविंग संगठन की स्थापना की। श्री श्री रविशंकर अमेरिका स्थित डिविनिटी स्कूल काउंसिल के एकमात्र गैर पश्चिमी सदस्य हैं। वे संयुक्त राष्ट्र की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित विश्व शांति वार्ता के गेस्ट स्पीकर भी थे। श्री श्री आईएएचवी (इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर ह्यूमन वैल्यूज) के सह संस्थापक भी हैं। सन् 1984 से श्री श्री रविशंकर जी की देश विदेश में यात्रायें और जग कल्याण हेतु असंख्य लोगों को चिन्ता व तनाव से मुक्ति का मार्ग दर्शन आरम्भ हुआ। गुरूदेव की युवा अवस्था, श्वेत परिधान व ज्ञान की विशालता को ह्रदय में दक्षिणामूर्ति की स्मृति साकार हो उठती है। उपनिषदों में सद्गुरू के पांच लक्षण बताये गये हैं, समृद्धि,ज्ञान रक्षा, दुख क्षय, सुख-आविर्भाव व सर्वसंवर्धन। ये पांचों लक्षण हर समय इनके आस-पास प्रकट पाये जाते हैं। आपके मौन में मुखरता व मुखरता में मौन की सुखद अनुभूति होती है। आपके साकार रूप में भी अवर्णनीय निराकार का आभास मिलता है।

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