Sawan 2025: संसार में रहते हुए भी निर्लिप्त रहना ही है शिवत्व
स्वामी चिदानंद सरस्वती के अनुसार शिवत्व एक दिव्य अवस्था है जहां व्यक्ति संसार में रहकर भी उससे बंधता नहीं है बल्कि करुणा और विवेक से संचालित होता है। भगवान शिव का जीवन वैराग्य और संतुलन का प्रतीक है। शिवत्व हमें भीतर की शांति और स्थायित्व की ओर ले जाता है। यह बाह्य शक्ति नहीं बल्कि हमारे भीतर विद्यमान दिव्य चैतन्य है।

स्वामी चिदानंद सरस्वती (परमाध्यक्ष , परमार्थ निकेतन, ऋषिकेश)। शिवत्व वत्व वह दिव्य अवस्था है, जहां व्यक्ति संसार के मध्य रहते हुए भी उससे बंधता नहीं, बल्कि समत्व, करुणा और विवेक से संचालित होता है। यह संकल्प मात्र नहीं, जीवन की एक गहन साधना है। भगवान शिव का जीवन स्वयं उस वैराग्य और संतुलन का प्रतीक है। कैलाश की बर्फीली चोटियों पर विराजमान शिव एक ऐसे योगी हैं, जो भस्म से अलंकृत हैं, मां गंगा व चंद्र को धारण किए हुए हैं और नाग व त्रिशूल के साथ अपनी तपस्विता से समस्त सृष्टि को दिशा एवं दृष्टि प्रदान कर रहे हैं।
यह उस आंतरिक स्वतंत्रता का जीवंत चित्रण है, जो शिवत्व को जन्म देती है। शिव न तो संसार से भागते हैं, न उसमें डूबते हैं। वे गृहस्थ भी हैं और तपस्वी भी। उनका वैराग्य पलायन का नहीं, बल्कि सहभाग में भी निर्लिप्त रहने का है। जीवन को पूर्णतः स्वीकार कर लेना और फिर भी उससे परे रहना ही शिवत्व है।
शिवत्व का आदर्श स्वरूप
प्रकृति, शिवत्व का आदर्श स्वरूप है। वृक्ष, नदी और आकाश की तरह देना, जोड़ना, सहना और फिर भी अपने मौन में स्थिर रहना, यही तो शिवत्व है। वर्तमान समय में, जब जीवन बाहरी शोर और अपेक्षाओं से भरा है, शिवत्व हमें भीतर की शांति और स्थायित्व की ओर ले जाता है। शिवत्व कोई बाह्य शक्ति नहीं, बल्कि हमारे भीतर विद्यमान दिव्य चैतन्य है।
करुणा और समर्पण
शिव, सर्वात्मक तत्व हैं, एक अनुभूति हैं, जो हमें विरक्ति नहीं, विश्व के प्रति करुणा और समर्पण का संदेश देते हैं। शिव तत्व के बारे में बात करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि इसे केवल महसूस किया जा सकता है। आप कभी भी शिव तत्व से बाहर नहीं निकल सकते, क्योंकि शिव ही संपूर्ण सृष्टि हैं।
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