जीवन दर्शन: इन वजहों से बेहद खास है विजयदशमी का पर्व, जानें इससे जुड़ी प्रमुख बातें
रावण रूपी रोग और मोह से पार पाने का दिन ही विजयदशमी है। हम शीलहीन नहीं शीलवान बनें। हम नीति धर्म और भक्ति के रास्ते पर चलें। ऐसा करना ही रोग और मोह रूपी रावण का मानसिक वध कर विजयदशमी पर्व मनाना है। इस पर्व को और भी खास बनाने के लिए आइए इससे जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातों को जानते हैं।

मोरारी बापू (प्रसिद्ध कथावाचक)। भगवान श्रीराम के रावण पर विजय के दिन को विजयदशमी कहते हैं। दुनिया अपनी मानसिकता से रावण को मारने का प्रण ले। इस लक्ष्य को हासिल करते ही मन में राम के प्रकट होने का उल्लास आप खुद ही महसूस करेंगे। प्रश्न उठता है कि मानसिक रूप से रावण को कैसे मारा जाए? इसका अर्थ यह है कि रावण में जो कमजोरियां थीं, जो दोष थे, हम उन्हें अपने अंदर न आने दें। यदि वे हमारे अंदर हों भी तो हम उन्हें अपने से अलग कर दें। रावण में पांच अच्छी बातें थीं और पांच कमजोरियां थीं। एक अच्छाई है रावण बलवान है। व्यक्ति बलवान होना चाहिए। शंभू सहित कैलाश उठा लिया। कोई बलवान हो, मगर बुद्धिमान न हो तो बल संघर्ष करता है। रावण बुद्धिमान भी है।
तीसरी अच्छाई रावण विद्यावान भी है और धनवान भी बहुत है। धनवान होने के साथ धर्मवान होना चाहिए आदमी। रावण तपवान भी तो है। ये उसमें पांच अच्छाइयां हैं, लेकिन उसकी पांच कमजोरियों के कारण पांचों अच्छाइयां दब गईं।
रावण की कमजोरी
रावण की पहली कमजोरी है कि वह शीलवान नहीं है। शीलहीन है। दूसरी कमी है कि रावण नीतिमान, नीतिवान नहीं है। नीति का दावा करता है, लेकिन है नहीं। धर्मवान भी नहीं है और रूपवान भी नहीं है। रूप पर सीमा से बाहर जाकर रीझना, उस पर आक्रमण कर देना रावण की कमजोरी थी।
मेरा मानना है कि रूप पर आक्रमण तो अरूप ही करता है। रूप तो रूप की पूजा करता है। रावण भक्तिवान भी नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास ने मानस में लिखा है कि -
''जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार।।''
अर्थात विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं। रावण ऐसा नहीं कर सका। रावण को कहीं रोग कहा गया है तो कहीं मोह। रावण रूपी रोग और मोह से पार पाने का दिन ही विजयदशमी है। हम शीलहीन नहीं, शीलवान बनें। हम नीति, धर्म और भक्ति के रास्ते पर चलें। ऐसा करना ही रोग और मोह रूपी रावण का मानसिक वध कर विजयदशमी पर्व मनाना है। मानस के अरण्यकांड में राम की प्रतिज्ञा है कि समस्त पृथ्वी को राक्षसविहीन कर दूंगा। तब जानकी कहती हैं, प्रभु, क्या ये असुर हमारे बच्चे नहीं हैं? मैं तो जगतजननी हूं।
क्या रावण मेरा पुत्र नहीं है? हमें असुरों का नहीं, आसुरी तत्वों का हनन करना है। इनके अंदर की बुराइयों को मारना है। विश्व की प्रसन्नता के लिए भगवान पतंजलि ने भी सरल उपाय दिए हैं। बहुत प्यारा सूत्र है। जहां भी पाप दिखे, उपेक्षा करो। पापी की नहीं, उसके पाप की उपेक्षा करो।
कमजोरियों को नष्ट करें
विजयदशमी पर्व मनाने की सार्थकता तभी है, जब हम अंदर की कमजोरियों को नष्ट करें। रावण राज की या कहूं, लंका की बहुत बड़ी कमी यह थी कि लंका में कोई मानता ही नहीं था कि वहां कोई रोगी है। परिणाम सबके सामने है। जो माने ही नहीं कि अस्वस्थ है, वह स्वस्थ कैसे हो सकता है? मुश्किल यही है कि कई लोग अपनी कमी को मानते भी नहीं। कम से कम आदमी मान ले कि उसमें यह कमी है तो कभी न कभी वह दूर भी की जा सकती है।
परिणाम लंका जैसा ना हो, इसके लिए विजयदशमी पर हम अपनी कमियों को स्वीकार करें और धीरे-धीरे उन्हें दूर करने का प्रयास करें। कलिकाल में अपनी कमियों को दूर करने और समस्याओं के समाधान का एक बड़ा साधन और उपाय हरि नाम है।
यह भी पढ़ें: जीवन दर्शन: जीवन में रहना चाहते हैं सुखी और प्रसन्न, तो इन पांच बातों पर जरूर करें गौर
रावण के इष्ट
रावण के इष्ट स्वयं भगवान शिव राम नाम जपते हैं। राम परम तत्व हैं। हमारी बहुत सी परेशानियों का कारण हमारा मोह है। मोह रूपी रावण को राम ने मारा था। हमारे भीतर महामोह का महिषासुर बैठा है। महिषासुर का वध राम ने नहीं, मां काली ने किया था। इसे मारने के लिए हम रामकथा का सहारा लें। रामकथा एक ओर जहां काली के रूप में कराल है, तो वहीं चंद्रमा की किरणों की तरह उसमें कोमलता-शीतलता भी है।
हमारे वेद कहते हैं-सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामय:। सब सुखी हों, सब निरोगी हों, सब शतायु हो। रामराज के मूल में भी सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामय: की भावना है।
तभी संपूर्ण होगा विजयदशमी पर्व
हमारा विजयदशमी पर्व तभी संपूर्ण होगा, जब हम सबके सुखी रहने की, स्वस्थ रहने की, सब के शतायु होने की कामना करें और उस तरह के प्रयास भी करें। हम व्यापक की संतान हैं, इसलिए दूसरों के कल्याण का भारतीय सोच पूरे विश्व के कल्याण का सोच है। यही राम राज का सोच है। राम ने रावण का वध किया लेकिन युद्ध से पहले युद्ध को रोकने के तमाम उपाय किए गए। युद्ध से पूर्व सेतु बनाया गया।
भगवान राम गए तो युद्ध करने के लिए थे लेकिन पहले सेतु बनाया। यह भारत का विचार है कि पहले सेतु बनाया जाए फिर यदि करना पड़े तो संघर्ष किया जाए। सीधा संघर्ष नहीं।
सेतुबंध के प्रयास
पहले जोड़ो। पहले एक्य। ये भूमि एकता की है। पहले जोड़ा जाए फिर यदि संघर्ष करना पड़े तो किया जाए। यह बहुत ही प्रेरणादायक बात है कि सेतुबंध पहले होना चाहिए। विजयदशमी का पर्व सिर्फ रावण के वध और राम की विजय का ही पर्व नहीं है। इसके मूल में सेतुबंध के प्रयास का संदेश भी है। आज पूरे विश्व में समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सेतु बनाए जाने की जरूरत है। जिसमें भी राम तत्व होगा, वो सिर्फ जोड़ने की बात करेगा, तोड़ने की नहीं। सत्य, प्रेम और करुणा प्रमुख राम तत्व हैं।
स्वयं चल कर पहुंचें
जिसमें ये तत्व होंगे, वो वंचित लोगों तक पहुंचेगा। राम समाज के वंचित लोगों के पास स्वयं चलकर गए। केवट, शबरी, अहल्या के प्रसंग इसके प्रमाण हैं। आज समाज की एक बड़ी जरूरत है कि सक्षम लोग वंचित लोगों तक, अंतिम पंक्ति में खड़े लोगों तक स्वयं चल कर पहुंचें। हम भी ऐसा करें तो समझें कि हम भी विजयदशमी पर्व मनाने की राह पर चल रहे हैं।

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।