मानस संवाद: बड़े भाग मानुष तनु पावा
श्रीरामचरितमानस एक आचरण ग्रंथ है। आचरण के अभाव में ज्ञान भक्ति कर्म सब कुछ अधूरा है। काकभुशुंडि जी द्वारा गरुड़ जी को दिया गया उपदेश इसी संदर्भ में मनुष्य शरीर की सार्थकता की आध्यात्मिक व्याख्या है। इसमें भक्त काकभुशुंडि वक्ता हैं और ज्ञानी गरुड़ श्रोता हैं। समग्र रामकथा श्रवण के पश्चात पक्षीराज गरुण काकभुशुंडि जी से सात प्रश्नों की जिज्ञासा करते हैं।

स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन) । संवाद का ऐसा सांगोपांग निर्वहन संसार के किसी स्मृति साहित्य में नहीं मिलेगा, जो श्रीरामचरितमानस में है। पूरा मानस भक्त काकभुशुंडि और ज्ञानी पक्षीराज गरुड़ के बीच का संवाद है। भक्त काकभुशुंडि वक्ता हैं और ज्ञानी गरुड़ श्रोता हैं। भक्त प्रतिपादन कर रहा है और ज्ञानी जिज्ञासा कर रहा है। भक्त के प्रतिपादन में भावना का वह समुद्र लहराता है, जिसमें तनिक भी खारापन नहीं होता है और ज्ञानी की जिज्ञासा में कुतर्क का अभाव होता है। भक्त और ज्ञानी दोनों का परम उद्देश्य रामराज्य है, जो आचरण के उपादान के बगैर संभव नहीं है।
समग्र रामकथा श्रवण के पश्चात पक्षीराज गरुण काकभुशुंडि जी से सात प्रश्नों की जिज्ञासा करते हैं। पहला प्रश्न पूछते हुए वह कहते हैं कि सबसे दुर्लभ शरीर कौन सा है? काकभुशुंडि जी उत्तर देते हैं कि मनुष्य शरीर सबसे दुर्लभ है, क्योंकि मैंने स्वयं भी इसी शरीर के रहते भगवान और उनकी भक्ति को पाया है। वह कहते हैं कि मनुष्य तन ही वह उपलब्धि है, जो मोक्ष सुख का अनुभव भी करा सकता है। स्वर्ग के सुख को लोग भले ही श्रेष्ठ मानते हों, पर अंत में वह भी अल्प है और दुख का कारण बनता है। तब भक्ति रस का प्रतिपादन करते हुए वह कहते हैं कि :
नर तन सम नहिं कबनेउ देही।
जीव चराचर जांचत जेही।।
एहि तनु राम भगति मैं पाई।
तांतें मोहि ममता अधिकाई।।
भक्त के जीवन में जो प्राप्त शरीर है, वह भी आराध्य को पाने का उपादान होने के कारण पूज्य हो जाता है। संसार में भी किसी व्यक्ति के सहयोग से यदि हमें कुछ विशेष उपलब्धि हो गई हो तो हम जीवन भर उसके कृतज्ञ रहते हैं, उसी प्रकार काकभुशुंडि जी कह रहे हैं कि शरीर मिथ्या तो तब होगा, जब इसका उद्देश्य भोगों की प्राप्ति हो, पर जब वही शरीर भगवत्प्राप्ति का साधन बन जाए तो वह अपने अभीष्ट को पाकर धन्य हो जाता है। प्रमाण रूप में वे अपना अनुभव प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि मैंने मनुष्य शरीर में रहते ही भगवान शिव की कृपा से धन्यता प्राप्त की थी, पर जो कृपालु शिव जिन बालक राम को अपने हृदय मे धारण करते हैं, उनको ही मैंने अपना ईश्वर माना है।
वह कहते हैं, मेरे इस भाव परिवर्तन से मेरे परमकृपालु सदाशिव विश्वनाथ मुझ पर और भी अधिक प्रसन्न हो गए। उन्हें लगा कि मेरे इस भक्त (काकभुशुंडि) का प्रवेश मेरे हृदय में हो गया है और इसने देख लिया कि मेरे इष्ट तो बालक राम हैं, जो अयोध्या में दशरथ के अजिर में मालपुआ लेकर घूमते रहते हैं। काकभुशुंडि जी हमें और आपको यह बताना चाहते हैं कि जब उन्होंने कौआ होकर भी भगवान को पा लिया तो हम लोगों के भाग्य के लिए तो शब्द ही नहीं हैं। प्रभु श्रीरामचंद्र जी ने स्वयं भी समस्त चराचर के कल्याण के लिए मनुष्य का ही शरीर धारण कर लिया है। वे कहते हैं कि इस शरीर को पाने का मात्र एक ही लाभ है कि व्यक्ति भगवान का भजन करे। भक्त काकभुशुंडि ने मनुष्य शरीर से भजन करने के प्रताप और फल को बताते हुए कहा कि ज्ञानी ऋषि लोमश ने मेरे अंदर भक्ति के प्रति पक्षपात देखकर भले ही मुझे अपनी दृष्टि से कौआ बनने का शाप दिया था, पर वह मेरे लिए वरदान हो गया। इसका श्रेय वे भगवान के भजन के प्रभाव को देते हैं :
भगति पच्छ हठ करि रहेउं दीन्ह महारिषि श्राप।
मुनि दुर्लभ बर पायउं देखहु भजन प्रताप।।
महत्व इसका नहीं है कि हम किस शरीर, किस देश, किस जाति और धर्म के हैं। काकभुशुंडि जी कहते हैं कि महत्वपूर्ण यह है कि हम भगवान की भक्ति और भजन कर रहे हैं या नहीं? भजन ही शरीर का प्राण है, क्योंकि गुरु वशिष्ठ जी कहते हैं :
प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम।
तुम्ह बिनु तात सुहात गृह जिन्हहिं तिन्हहिं बिनु बाम।।
गोस्वामी जी ने इस बात पर जोर दिया है कि जिसने इस धरा पर जन्म लेकर भगवान का भजन कर लिया, बस वही धन्य है :
सोइ विजयी विनयी गुन सागर,
जासु सुजसु त्रैलोक उजागर।
उसी की विजय होती है, वही संसार में सबके प्रति विनयी होता है, वही गुणों की खान होता है और सारे विश्व में उसी का यश त्रैलोक्य में उजागर होता है, जिसने जन्म लेकर भगवान के दिए हुए इस शरीर का सदुपयोग कर लिया। यही स्वयं भगवान ने कहा है कि :
बड़े भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।
पाइ न जेहिं परलोक संवारा।।
यह मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया तो फिर यही कहेंगे कि :
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाई।।
प्राप्त शरीर और साधनों का जो सदुपयोग न करे, वही नास्तिक है। ऐसा नास्तिक आस्तिकता को आरोपित करते हुए काल, कर्म, स्वभाव और गुणों को दोषी बताकर अपना सिर धुनता रहता है और जीवन भर पछताता है। भगवान का भक्त अपनी इंद्रियों का उपयोग पर दोषों के दर्शन में न करके भगवान की कृपा के दर्शन में करता है, जो सत्संगी मति के अभाव में संभव नहीं है। रावण के वध के पश्चात ब्रह्मा जी ने भगवान की स्तुति करते हुए कहा कि धन्य हैं ये सब वानर, जिन्होंने पशु शरीर पाकर भी आपकी सेवा करके जीवन में कृतकृत्यता पा ली। यदि हम देवता शरीर पाकर भी भगवान की भक्ति से दूर रहें तो हमारे जीवन को धिक्कार है। मनुष्य शरीर ही वह सीढ़ी है, जिसको उठाकर कहीं भी लगाया जा सकता है। स्वर्ग, नर्क और मोक्ष कुछ भी मिल सकता है। यहां तक कि सद् और असद् का ज्ञान तथा असद् का त्याग करके सद् को स्वीकारने वाला वैराग्य भी इसी शरीर नसेंनी से ही संभव हो जाता है :
सरग नरक अपवर्ग नसेंनी।
ग्यान बिराग भगति सुख देनी।।
काकभुशुंडि जी ने मनुष्य शरीर की महिमा का मानस में बहुत विस्तार से वर्णन किया है। संवाद की यही गरिमा है, जिसमें ज्ञानी भक्त बन गया और भक्त ज्ञानी बनकर एक दूसरे में पूर्णता देखने लगे। दूसरे में पूर्णता और गुणों का दर्शन करना ही संवाद का सुफल है।
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