रामकृष्ण परमहंस पर विशेष: धार्मिक कर्मकांड नहीं मानव सेवा सच्ची भक्ति
रामकृष्ण परमहंस धार्मिक कर्मकांड की बजाय मानव सेवा को ही सच्ची ईश्वर भक्ति मानते थे। उन्होंने इसको कई उदाहरणों द्वारा प्रमाणित भी किया है।
संसारिक कार्य और ईश्वर भक्ति एक साथ
एक बार रामकृष्ण परमहंस से एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया, 'क्या संसार के कार्यो में व्यस्त रहते हुए ईश्वर की आराधना संभव है?' 'क्यों नहीं।' परमहंसदेव ने हंसते हुए उत्तर दिया। उन्होंने एक उदाहरण देते हुए कहा, 'तुमने चूड़ा बनाते हुए स्त्री को देखा ही होगा। वह अपने एक हाथ से चूड़ा पलटती जाती है तथा दूसरे हाथ से बच्चे को गोदी में लेकर दूध पिलाती रहती है। यदि कोई पड़ोसिन या अन्य व्यक्ति उस समय उसके पास आ जाता है, तब वह उससे बातें भी करती जाती है। ग्राहक के आने पर वह उससे हिसाब भी करती है। उसका कार्य पूर्ववत चलता रहता है। इन सब कामों के करते रहने पर भी उसका मन हर समय ओखली और मूसल में ही लगा रहता है। वह जानती है कि यदि थोड़ी सी भी असावधानी बरती गई, तो मूसल हाथ पर गिरेगा और हाथ टूट जाएगा।'
मन ईश्वर में रमा हो
'इसी तरह मनुष्य को अपने काम करते रहना चाहिए, पर अपना मन हर समय भगवान में लगाकर रखना चाहिए। यही आराधना का सच्चा तरीका है।' संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फरवरी 1836 को बंगाल प्रांत के कामारपुकुर ग्राम में हुआ था। वे 1836 से 1887 तक सक्रिय रहे। छोटी आयु में ही उनके पिताजी का स्वर्गवास हो गया। साधना-उपासना के प्रति उनकी बचपन से ही बड़ी लगन थी। गांव में आजीविका के स्रोत उपयुक्त नहीं थे। उनके बड़े भाई कलकत्ता में रहते थे। इसलिए उन्होंने छोटे भाई रामकृष्ण को भी वहीं बुला लिया। कुछ बड़े होने पर दक्षिणेश्वर मंदिर की पूजा-अर्चना का कार्य उन्हीं के जिम्मे आ गया। मंदिर में पूजा-अर्चना के साथ-साथ कई अलग-अलग कार्यो में गहन श्रद्धा व विश्र्वास के साथ तल्लीन भी रहते थे। उन्होंने इसी आधार पर भक्त और भगवान के एक होने की उक्ति सही सिद्ध करके दिखा दी।