Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    संत के हृदय में सात्विक गुण होना चाहिए

    By Edited By:
    Updated: Thu, 16 Jan 2014 01:34 PM (IST)

    प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के दो पक्ष होते हैं। पहला पक्ष उज्जवल है और दूसरा श्याम। पहले पक्ष का संबंध व्यक्ति के सात्विक गुणों से होता है और दूसरे पक्ष का संबंध असात्विक गुणों से। व्यक्ति अपने स्वभाव और गुणों के आधार पर संतत्व-असंतत्व, यश-अपयश, मान-अपमान, प्रशंसा-निंदा आदि का भागीदार बनता है। शास्त्रों में वर्णित संतों के 32 लक्षणों के अ

    संत के हृदय में सात्विक गुण होना चाहिए

    प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के दो पक्ष होते हैं। पहला पक्ष उज्जवल है और दूसरा श्याम। पहले पक्ष का संबंध व्यक्ति के सात्विक गुणों से होता है और दूसरे पक्ष का संबंध असात्विक गुणों से। व्यक्ति अपने स्वभाव और गुणों के आधार पर संतत्व-असंतत्व, यश-अपयश, मान-अपमान, प्रशंसा-निंदा आदि का भागीदार बनता है।
    शास्त्रों में वर्णित संतों के 32 लक्षणों के आधार पर संतों की भिन्न-भिन्न व्याख्याएं प्रस्तुत की गई हैं। सामान्यत: संत के हृदय में सात्विक गुणों और स्वभाव की विनम्रता के कारण सदैव भगवान का ही चिंतन रहता है और भगवान के हृदय में सदैव संत का ही वास होता है। संत-सान्निध्य सर्वजन हितकारी, सुखकारी और शांति प्रदाता होता है। संत ही भोग-वासनाओं से विरत, धर्म-नीति के पालक, भगवान के सच्चे भक्त और नवनीत के समान कोमल हृदय होने के कारण दूसरों के दुखों से शीघ्र द्रवित हो जाते हैं।
    संत के बिछोह की कल्पना मात्र से ही होने वाली मर्मातक पीड़ा से प्राण त्यागने जैसी व्याकुलता की अनुभू्ति होने लगती है। इसके विपरीत असंत के मिलने मात्र से ही दारुण दुख देने वाली असहनीय वेदना होती है। मानस में संत तुलसी ने कहा है-'संत दरस सम सुखजन नाहीं।' संत चलते-फिरते तीर्थ ही नहीं, बल्कि साक्षात सत्संग भी होते हैं। संत में चेतन-तत्व का प्राबल्य होने के कारण देवत्व की प्रधानता होती है। संत-सान्निध्य प्राप्त करने की ललक और संस्कारों का धनी व्यक्ति ही संत के निकट पहुंचने की पात्रता रखता है। संत के हृदय की स्वाभाविक पवित्रता के प्रभाव से संपर्क में आने पर व्यक्ति अपनी दुर्बलताओं और कुत्सित मनोविकारों को जान लेता है और संत-कृपा से सजग हो जाता है। संत अपने संतत्व की स्वाभाविक ऊर्जा से सत्संग के परिवेश का निर्माण करते हैं और अपने सद्गुणों और सद्विचारों से उसे अपने जैसा ही बना लेते हैं।
    संत-सान्निध्य प्राप्त होते ही व्यक्ति क्षण-क्षण में क्षीण होने वाले संसार की क्षुद्र सीमाओं को पार कर सद्मार्ग का अनुगामी होकर शाश्वत सत्य की निकटता की अनुभू्ति करने लगता है। संत की कृपा ही व्यक्ति को परम प्रभु के निकट पहुंचाने के लिए अनुकूल परिस्थितियों का सृजन करती है। संत-सान्निध्य ही सत्संग की सुवास की जीवंतता को अक्षुण्ण बनाए रखता है।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें