Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    Navdha Bhakti: नवधा भक्ति करने वाले साधक के हृदय में बसते हैं भगवान

    Updated: Mon, 16 Dec 2024 12:24 PM (IST)

    सनातन मान्यताओं के अनुसार भक्ति ईश्वर से जुड़े रहने का एक उत्तम साधन मानी गई है। साधक को व्यवहार में सबके प्रति सरल होना चाहिए और किसी से भी छल नहीं करना चाहिए। तो चलिए पढ़ते हैं स्वामी मैथिलीशरण द्वारा की गई भगवान श्रीराम के भक्तिमयी शबरी को दिए गए नवधा भक्ति (Navdha Bhakti) के नवम तथा अंतिम उपदेश की व्याख्या।

    Hero Image
    Navdha Bhakti: नवधा भक्ति पर स्वामी मैथिलीशरण द्वारा नवम तथा अंतिम उपदेश की व्याख्या।

    स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। हिंदू शास्त्रों में नौ प्रकार की भक्ति का वर्णन मिलता है, जिसे नवधा भक्ति कहा जाता है। नवधा भक्ति को लेकर स्वामी मैथिलीशरण ने विस्तार से व्याख्या की है। तो चलिए इस क्रम में पढ़ते हैं नवधा भक्ति के आखिरी यानी नौवें प्रकार के बारे में स्वामी मैथिलीशरण के विचार।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    नवधा भक्ति

    नवम सरल सब सन छलहीना।

    मम भरोस हिएं हरष न दीना।।

    नौवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में ईश्वर का भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य का न होना। छल और असहजता हमें स्वयं से ऊपर नहीं उठने देती है। कर्तृत्व का अहंकार ही असहजता है, जिसके कारण हम कर्तापन के मिथ्या अहं में जकड़कर भक्ति के परम तत्व से वंचित रहते हैं। भक्त में न तो अहंकार का हर्ष होता है और न ही भौतिक अभाव की कोई दीनता उसमें आती है। यही है नवम भक्ति की परिपूर्णता।

    भौतिक विज्ञान ने जिन जड़ पदार्थों का प्रयोग कर अविष्कार किए हैं, उन सबका स्वभाव और प्रकृति सदा से एक जैसी ही रही है। सबके साथ उन पदार्थों का व्यवहार एकदम एक जैसा है। जड़ पदार्थों की प्रकृति सदा से एक जैसी ही रही है। जिन पदार्थों को हम जड़ कहते हैं और स्वयं को चैतन्य मानते हैं, या जिनको हम पशु-पक्षी, कीड़ा-मकौड़ा कहते हैं, वे भी अपने स्वभाव और प्रकृति को नहीं बदलते हैं। संसार की भाषा में यह उनकी जड़ता कहलाती है, पर वस्तुत: यही उनकी सरलता और छलहीनता है। विज्ञान का सारा सृजन पंचमहाभूतों पर ही आश्रित है, उसमें अपनी योग्यता बताना ही असहजता और छल है। व्यक्ति एक क्षण भी ईश्वर की दी हुई सहज कृपा और शक्ति के बिना नहीं रह सकता है। भगवान स्वयं सब जानते हैं कि सीता जी कहां हैं, पर वे मात्र भक्तों को सम्मान देने के लिए ही सबसे पूछ-पूछकर कार्य करते हैं। यही उनका शील, सरलता और छलहीनता है।

    सीता जी की खोज के संदर्भ में समुद्र ने भगवान से कहा कि यद्यपि संसार में ये पांच तत्व जड़ हैं- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश, पर चूंकि सृष्टि निर्माण के लिए आपके द्वारा इनका निर्माण किया गया है और ये आपसे प्रेरित होकर आपके ही संकल्प की पूर्ति के लिए उद्यत रहते हैं, इसलिए इनकी जड़ता भी धन्य हो जाती है, क्योंकि इनका कोई निजी विवेक नहीं है। वे तो प्रभु! आपके ही आश्रित हैं। यहां पर यह प्रश्न आना स्वाभाविक है कि फिर सरलता और छल हीनता क्या मनुष्य में संभव नहीं है? क्या मनुष्य जड़ पदार्थों और पशुओं से भी निम्न है, जो सरलता और छल हीनता से वंचित है? इस जिज्ञासा के समाधान के लिए एक ही मार्ग है और वह है सत्संग और मूल ग्रंथों का स्वाध्याय तथा उनके संदर्भ और प्रसंगों पर सौम्य सुहृद संवाद, जिसमें न तो विवाद हो तथा न ही मतों का भेद हो, क्योंकि मतभेद बहुधा अहंकार पर ही केंद्रित होता है।

    सही तो यह है कि जड़ और चेतन, गुण तथा दोष को मिलाकर ही ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण किया है। संसार में संत ही वे हंस होते हैं, जो विकार दोष को छोड़कर निर्विकार गुण को ग्रहण कर लेते हैं। यही उनकी सरलता और सहजता है, जिससे वे दोष को भी गुण बना देते हैं।

    सरलता और छल हीनता के बिना हृदय में सत् प्रवेश ही नहीं करता। सत् विवेक के अभाव में यह समझ नहीं आ सकता है कि सत्-असत् के बिना यह मायामय सृष्टि तथा अविष्कार का परिष्कार या निर्माण नहीं होगा। सारे भोज्य पदार्थ, जिनका उपयोग हम जीविकोपार्जन के लिए करते हैं, वे जन्म लेते तथा उपजते हैं। सत् विवेक वही है, जो ग्राह्य को रख ले और त्याज्य को छोड़ दे। यह सामान्य-सी सरल बात है और सरलता भी यही है।

    संसार में हम जिन्हें चैतन्य समझ रहे हैं और जो चैतन्य लोग अपने को ज्ञानी समझ रहे हैं, वे वास्तव में जब असत् को छोड़कर सत् रूप गुण को स्वीकार कर उसका उपयोग समाज के सृजन और विकास के लिए करें, तब वह आविष्कार होगा। भगवान ने वनवास के गरल को पीकर शिव की भांति उसे समाज के लिए अमृतमय बना दिया। भगवान ने शबरी जी से भी वनवास की पृष्ठभूमि की असत् चर्चा न कर केवल शबरी जी की भावना को सुनकर उन्हें सम्मान देने के लिए अपने अभाव की चर्चा के रूप में भक्ति रूपी सीता के अन्वेषण की जिज्ञासा कर उन्हें पुन: प्राप्त करने के अविष्कार का सूत्रपात कर दिया।

    यह भी पढ़ें -

    भगवान की सरलता यह है कि उन्होंने अपने अभाव और अपनी समस्या पर कोई जामा नहीं चढ़ाया। एक सामान्य विरही व्यक्ति की भांति मात्र एक पंक्ति का प्रश्न किया कि हे प्रकाशमयी, हाथी-सी चाल चलने वाली शबरी मां! क्या आप जनकसुता की सुधि जानती हैं? उत्तर देते हुए शबरी जी ने भी अपनी कोई विशेषता न बताकर पंपासर जाकर सुग्रीव से मित्रता होने की बात कही। सत् में तो केवल दिशा का सूत्रपात होता है, समाधान का मार्ग तो हमें ही निकालना पड़ता है। न तो शबरी ने भगवान को कोई समाधान दिया और न ही विभीषण ने हनुमान जी को।

    दोनों ने मात्र युक्ति बताई। यही है भक्ति, शक्ति, लक्ष्मी तथा शांति रूप सीता को प्राप्त करने और गुण को ग्रहण करने की शैली एवं पद्धति। भक्ति मार्ग में छल छिद्र ही बड़ी बाधा है। छल छिद्र से संसार, माया का विस्तार तो किया जा सकता है, पर जीवन में भक्ति नहीं आ सकती है। संसार में परस्पर विरोधी पदार्थों के संयोजन से ही सृजन होता है और रामराज्य बनता है। जड़ और चेतन को मिलाकर सृष्टि का विस्तार, वैज्ञानिक आविष्कार तथा असंभव संभव होता है। रामराज्य बनता है, उसी से सीता जी मिलती हैं, पर इस अद्भुत समीकरण को सत्संग के बिना नहीं समझा जा सकता है।

    जड़ चेतन गुण दोष मय बिस्व कीन्ह करतार।

    संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार।।

    विज्ञान को चाहिए कि जड़ के स्वभाव का उपयोग करते समय पदार्थ के अंदर तथा वैज्ञानिक को स्वयं अपने अंदर भी एकमात्र चैतन्य ईश्वर को ही साक्षात मानकर प्रयोगशाला में जाना चाहिए, तब उस वैज्ञानिक की खोज चैतन्य की खोज होगी, अन्यथा तत्काल दिखाई देने वाला अविष्कार भविष्य में रावण की तरह सृष्टि और वैज्ञानिक दोनों को समाप्त कर देने वाला सिद्ध होगा। यही विवेक है, जो केवल सत् का संग करने से प्राप्त होता है।

    यह भी पढ़ें -

    बिनु सत्संग बिबेक न होई।

    राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।

    भगवान का स्वभाव स्वयं इतना सरल है कि गुरुदेव के पूजन के लिए जनकपुर में पुष्प वाटिका से पुष्प चुनकर लाने के पश्चात श्रीराम ने गुरुदेव विश्वामित्र से पुष्पवाटिका में जो कुछ हुआ, सब कुछ बता दिया, गोस्वामी जी लिखते हैं:

    राम कहा सब कौसिक पाहीं।

    सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं।।

    गुरुदेव विश्वामित्र जी से कोई छल नहीं किया, सब कुछ सरल भाव से बता दिया। परिणाम हुआ कि गुरुदेव ने तुरंत प्रसन्न होकर कहा कि

    सुफल मनोरथ होहिं तुम्हारे।

    राम लखन सुनि भये सुखारे।।

    इसी तरह उधर सीता जी ने पार्वती जी का पूजन कर उनसे कुछ न छिपाते हुए कह दिया कि आप मेरे मनोरथ को अच्छी तरह जानती हैं, इसी कारण मैं स्वयं अपने मुख से बोलकर कुछ नहीं कह रही हूं, आप तो सबके हृदय प्रदेश में निवास करती हैं। पार्वती जी ने सीता जी की सरलता भरे निश्छल निवेदन पर आशीर्वाद देते हुए कहा कि

    मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बर सहज सुंदर सांबरो।

    तुमको बिल्कुल सहज सरल पति के रूप में राम मिलेंगे। भगवान ही ऐसे हैं, जो सरल भी हैं और सबल भी हैं।

    गई बहोरि गरीब नेबाजू, सरल सबल साहिब रघुराजू।

    यहां भगवान शबरी जी से अपनी नवम भक्ति का उपदेश करते हुए सरल होने और सबसे छलहीन व्यवहार को नौवीं भक्ति बताते हैं। जीवन में इन नौ के आने पर ही भगवान हृदय में आते हैं तथा जीव धन्य हो जाता है।