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    जीवन दर्शन: जीवन में हमेशा रहना चाहते हैं सुखी और प्रसन्न, तो इन बातों को जरूर करें आत्मसात

    सकल विश्व को अपना परिवार मानें। धर्म का पालन करें। सत्य दया दूसरों को आदर-सम्मान देने जैसे गुणों भरा जीवन हो। फलोन्मुख होने के बजाय कर्मोन्मुख बनें। कर्म को पूरी एकाग्रता के साथ करेंगे तो कर्म उत्तम होगा। अपने तर्क और श्रद्धा-विश्वास को बराबर महत्त्व दें। वस्तुनिष्ठ बाह्य जगत और आत्मनिष्ठ आंतरिक जगत में दिल और दिमाग में संतुलन हो।

    By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 21 Apr 2024 02:44 PM (IST)
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    जीवन दर्शन: जीवन में हमेशा रहना चाहते हैं सुखी और प्रसन्न, तो इन बातों को जरूर करें आत्मसात

    माता अमृतानंदमयी (प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु): कुछ लोगों को जानने की चाह है कि प्रसन्न कैसे रहें और प्रसन्न रहने के पीछे रहस्य क्या है। अगर प्रसन्नता के पीछे कोई रहस्य है, तो यह कि यह जगत की वस्तुओं में नहीं होता, बल्कि हमारे अपने भीतर होता है। हम स्वयं आनंद का स्रोत हैं। यदि सुख वस्तुओं में होता तो सबको इनसे ही सुख मिल गया होता! लेकिन देखने में आता है कि वस्तुओं से सुख नहीं मिलता। सुख यदि आइसक्रीम में होता तो सबको हर समय आइसक्रीम की ही चाह होती। लेकिन दो बार के बाद तीसरी, चौथी या पांचवीं आइसक्रीम खाने का आग्रह करो तो यही आइसक्रीम दुख का कारण बन जाती है!

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    वस्तुत: हमारा वस्तुओं पर सुख को आरोपित करना वैसा ही है, जैसे कुत्ता सोचता है कि सूखी हड्डी में उसे रक्त का स्वाद आ रहा है, जबकि स्वाद उसे अपने ही मसूढ़ों से रिसते रक्त का आता है। भ्रमित कुत्ता हड्डी को चबाए जाता है। यदि लगातार यह रक्त बहता रहे, तो वह एक समय मर भी सकता है। हमें यह सत्य समझना चाहिए कि सुख वस्तुओं में नहीं है, बल्कि हम में ही है। हम स्वयं ही सुख का स्रोत हैं। इस ज्ञान से ही हमें अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण पाने में सहायता मिलती है।

    इस सत्य को आत्मसात करने पर हम अधिक शांत हो जाते हैं और वह शांति आंतरिक आनंद की अनुभूति में सहायक होती है। अपने भीतर की शांति बढ़ाने के लिए हम कुछ बातों का अभ्यास कर सकते हैं, जैसे-संतोष का अभ्यास करें। जो अपने पास है, उसमें संतुष्ट रहें। निस्स्वार्थता का अभ्यास करें। केवल लेते न रहें, बल्कि दें भी। धन कमाएं, लेकिन समाज को उसका हिस्सा लौटाना भी सीखें।

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    सकल विश्व को अपना परिवार मानें। धर्म का पालन करें। सत्य, दया, दूसरों को आदर-सम्मान देने जैसे गुणों भरा जीवन हो। फलोन्मुख होने के बजाय कर्मोन्मुख बनें। कर्म को पूरी एकाग्रता के साथ करेंगे तो कर्म उत्तम होगा। अपने तर्क और श्रद्धा-विश्वास को बराबर महत्त्व दें। वस्तुनिष्ठ बाह्य जगत और आत्मनिष्ठ आंतरिक जगत में, दिल और दिमाग में संतुलन हो। प्रतिदिन थोड़ा सा समय ध्यान में बैठें और अपने जीवन के लिए ईश्वर का आभार व्यक्त करें। यदि हममें ये आदतें आ जाएं तो हमारा सत्स्वरूप सुख बाहर व्यक्त होने लगेगा। यह हमारे हृदय में और दूसरों के साथ हमारे व्यवहार में जगमगा उठेगा... ॐ लोकाः समस्ताः सुखिनो भवंतु।