Mahashivratri 2023: त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं, पढ़िए भगवान शिव का विश्वास स्वरूप क्या है?
Mahashivratri 2023 आधिदैविक आधिभौतिक और आध्यात्मिक ये तीन शूल हैं। भगवान शंकर का त्रिशूल ही साधक के तीनों शूलों को निर्मूल कर सकता है। शंकर जी की इस सामर्थ्य का मूल आधार है राम नाम। यही उनके विश्वास का आधार और शिव का विश्वास स्वरूप है।

नई दिल्ली, स्वामी मैथिलीशरण(संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन) | Mahashivratri 2023: श्रीरामचरितमानस में यह संदर्भ काकभुशुंडि जी के पूर्वजन्म का है, जब वे भुशुंडि थे। वे महाकाल मंदिर, उज्जैन में अपने विष्णु भक्त गुरुदेव के संग थे। गुरुदेव शिव और विष्णु के भेद से ऊपर थे, जिनकी भावस्थिति द्वैताद्वैत में थी। एक बार ऐसी परमहंस स्थिति को प्राप्त गुरुदेव को मंदिर में आते देखकर भुशुंडि जी अपनी शिव भक्ति के अहंकार के कारण नेत्र मूंदकर बैठे रहे। गुरुदेव के सम्मान में उठकर खड़े नहीं हुए। ऐसा देखकर शंकर जी शिष्य के द्वारा गुरुदेव की इस अवज्ञापूर्ण धृष्टता को देखकर कुपित हो गये। उन्होंने भुशुंडि को शाप दे दिया। सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि श्रीरामचरितमानस में इस वृत्तांत को स्वयं काकभुशुंडि जी अपने पूर्वजन्म के अनुभव के रूप में गुरुमहिमा और गुरु के स्वभाव को बताने के लिए सुनाते हैं। फिर वे कहते हैं कि यद्यपि मैंने गुरु-अपमान का जघन्य अपराध किया था, पर मेरे गुरुदेव इतने कृपालु थे कि उन्होंने रुद्राष्टकम् स्तुति द्वारा भगवान शंकर को प्रसन्न करके मुझ पर कृपा करने के लिए उनसे अनुरोध किया।
भगवान शंकर अपने भक्तों के आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक, तीनों प्रकार के तापों को हर लेने के लिए ही त्रिशूल हाथ में लिए रहते हैं। ज्ञान दृष्टि से इन त्रितापों की कोई वास्तविक सत्ता न होने पर भी मिथ्या रूप ये त्रिताप तीनों कालों में साधकों को कष्ट देते रहते हैं। ज्ञान दृष्टि से त्रिताप मिथ्या हैं। भक्ति की दृष्टि से इन तापों को भगवान का प्रसाद माना जाता है, तब ये विष रूप होकर भी भगवान के भक्त के जीवन में अमृत-सा परिणाम देते हैं। कर्म दृष्टि से त्रिताप से मुक्त होने के लिए हमें साधना करके उसे निर्मूल करना होगा। शरणागति मार्ग में साधक कर्ता है ही नहीं। साधक का आराध्य ही उसका नियंता और कर्ता है। शरणागत यह मानते हैं कि जब कर्तृत्त्व है ही नहीं तो भोक्तृत्त्व भी स्वत: निर्मूल हो जाता है। हम शरीर को जितना ढीला छोड़ देंगे, डाक्टर कहते हैं कि इंजेक्शन उतना ही अच्छा लगेगा और दर्द नहीं होगा।
मन और बुद्धि के स्तर पर हमने अज्ञानवश निर्मूल-मिथ्या व्याख्याओं से अपने को जकड़ लिया है, परिणामस्वरूप ये तीनों शूल हमें और भी अधिक कष्ट देते प्रतीत होते हैं। दुख को निर्मूल करने के लिए हमें दुख के कारणरूप मूल को समझना और उसमें स्थित होना होगा। वस्तुत: ये तीनों मूल भिन्न अर्थ वाले हैं और इनका अधिष्ठान अज्ञान है। काल, कर्म, स्वभाव और गुण, यह माया का अदृश्य जाल है, जिसके कारण ये त्रिताप हमें ताप लगते हैं। पहले यह जानना आवश्यक है कि ईश्वर के अतिरिक्त जितने मूल हैं, वे सब संसारी हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य- त्रिकाल में इनका कोई अस्तित्त्व है ही नहीं। हम स्वयं अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर नित्य नये-नये मूलों का निर्माण कर रहे हैं। ये सब स्वनिर्मित मूल ही हमारे दुख का मूल हैं। हमारी स्थिति न तो ईश्वर रूप मूल में रह गई है, न मूल ग्रंथों में, न ही धर्म के मूल में। इसी कारण हम दुख से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। नारद जी का दुख दूर हो गया, क्योंकि एक काल विशेष में उनमें इच्छा कुछ भी हो गई हो, पर वे हृदय से यही मानते हैं कि 'मेरे हित हरि सम नहिं कोई' भगवान के समान इस संसार में मेरा हित करने वाला उनके सिवा और कोई नहीं है। संसार प्राप्ति की इच्छा यदि भगवान के चरण कमलों में की जाए तो हम मोह और माया से मुक्त हो जाएं। क्योंकि भगवान भक्त पर ऐसी कृपा करते हैं कि अपनी ही माया से ग्रस्त करके और अपनी कृपा के ही द्वारा माया रहित करके उसे भक्तिरस से सराबोर कर देते हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तब आती है, जब हम संसार को पाने की इच्छा संस्कारियों द्वारा बनाए गये आधार रहित संसारियों से करते हैं, तो वे सब हमें आद्योपांत दुख के कुएं में डाल देते हैं। शरीर जन्य रोगादि हमारे जीवन में आधिभौतिक शूल है। मैं ज्ञानी हूं, शेष सब अज्ञानी और मूर्ख हैं, यह मानना आध्यात्मिक शूल है। जबकि जीवन से लेकर परमार्थ तक यह परम सत्य है कि जो दूसरे को बुद्धिमान मानकर सबको सुनने और सबसे सीखने की इच्छा रखता है, वही जीवन में अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त कर पाता है। ऐसी स्थिति में साधक संसार में अपनी तथा सबकी सीमा जानकर और समझकर असीम क्षमता से युक्त ईश्वर की असीमता का दर्शन कर लेता है। काल, कर्म, स्वभाव और गुण का दोष अपने में न देखकर भगवान पर प्रत्यारोपित करना तथा दैविक योजना को न समझकर उसमें अपनी कल्पित व्याख्या करना, यह आधिदैविक दुख का कारण है।
श्रीरामचरितमानस में भगवान के जितने निकटस्थ पार्षद श्रीभरत, श्रीलक्ष्मण और हनुमान जी आदि हैं, वे सब शक्ति, सिद्धि और सामर्थ्य के रूप में पूर्ण समर्थ हैं, पर कोई भी अपने को समर्थ मानने को तैयार नहीं है, क्योंकि इन सबकी आस्था का केंद्र और मूल केवल भगवान श्रीराम हैं। इसीलिए इन भक्तों के जीवन में कोई शूल नहीं आया। जीवन में जितनी प्रतिकूलताएं आईं, इन पात्रों ने उन्हें भगवान की सेवा-सामग्री बना दिया। भगवान शंकर स्वयं अमृत मंथन में विष पीने को तैयार रहते हैं। सुख की इच्छा से जब-जब हम पुरुषार्थ का समुद्र मंथन करेंगे, तब-तब उसमें से विष जरूर निकलेगा, विष में भगवान की कृपा देखना ही ज्ञान का सार है, भक्ति का सार है। संसार का कौन-सा साधक या सिद्ध यह कहता है कि जीवन में प्रतिकूलताओं का न आना ही कृपा है। यदि कोई ऐसा कहता है तो उसकी यह चमत्कारी खीर जादूगर के हाथ में तो दिखेगी, पर वह खीर जादूगर के भी खाने के काम नहीं आएगी। सारे शूलों का कारण यही माया है।
भगवान की भक्ति का तात्पर्य है सत्य को स्वीकार कर लेना, क्योंकि विष, अमृत का पूरक और संयुक्त पदार्थ है। ये दोनों जीवन में हमेशा साथ ही रहेंगे। गरल के सत्य को स्वीकार कर लेना ही परम सत्य को प्राप्त करने का मार्ग है। यदि हम सत्य को नकारेंगे तो कोई जादूगर हमें अपने माया जाल में फंसा देगा और हम त्रिशूल में फंस जाएंगे। तब हम शिव की कृपा से वंचित रह जाएंगे। वस्तुत: भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों एक ही कागज की तीन प्रतिलिपियां हैं। इसीलिए शंकर जी सदा शिव हैं। वे कभी एक दिन भी अपने मूल स्वरूप को बदलते नहीं हैं। भले ही दक्ष जैसे बुद्धिमान अपनी दक्षता का उपयोग शिव के प्रति उन अनास्थायुक्त वाक्यों में करें, पर शिव अपने उस ध्यान से कभी नहीं हटते हैं। यही कारण है कि शिव उस त्रिशूल को हाथ में रखते हैं कि प्रलय काल में जब सारा संसार पानी में डूब जाता है, तो भी शिव की नगरी काशी उस जलराशि से बची रहती है। वहां प्रलय का कोई प्रभाव नहीं होता। वे काशी को अपने त्रिशूल पर उठा लेते हैं। शंकर जी का त्रिशूल ही साधक के तीनों शूलों को निर्मूल कर सकता है। शंकर जी की इस समर्थ्य का मूल आधार है 'राम नाम'। यही उनके विश्वास का आधार है और यही शिव का विश्वास स्वरूप है।
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