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क्रिया योग: विकसित राष्ट्रों में स्त्रियों की वर्तमान परिस्थिति एक संक्रमणकालीन अवस्था है

अपनी मूल प्रकृति के अनुसार बच्चे सदैव सीखने का प्रयास करते हैं इसलिए स्वयं माता-पिता को अपने बच्चों के लिए एक उदाहरण बनना चाहिए। सीखने और आत्मसात करने के लिए प्रारंभिक वर्षों में बच्चों में मस्तिष्क और तंत्रिकाओं की अत्यधिक क्षमता होती है। बच्चे का मन इतना लचीला इतना नम्य होता है कि उसे अत्यंत सरलतापूर्वक नकारात्मक अथवा सकारात्मक ढंग से ढाला जा सकता है।

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarPublished: Sun, 29 Oct 2023 12:51 PM (IST)Updated: Sun, 29 Oct 2023 12:51 PM (IST)
क्रिया योग: विकसित राष्ट्रों में स्त्रियों की वर्तमान परिस्थिति एक संक्रमणकालीन अवस्था है

स्वामी चिदानन्द गिरि| माता-पिता अपने बच्चों में जिन गुणों को देखना चाहते हैं, स्वयं उनका आदर्श बनकर इन शिक्षाओं से अपने बच्चों का परिचय करा सकते हैं। आप बच्चों से यह नहीं कह सकते हैं, ‘वह करो जो मैं कहता हूं, वह नहीं करो जो मैं करता हूं।’ यह कथन कभी कार्य नहीं करता है। दूसरी ओर, वह व्यक्ति जो कुछ नहीं कहता है, किंतु दयालुता, गरिमा और दूसरों के लिए सम्मान और आत्म-संकल्प वाला जीवन जीता है, वह अपने बच्चों को प्रभावित करता है। उसका विचार होगा, ‘निश्चय ही मेरा जीवन वैसा ही होगा, जैसा मैं स्वयं उसका निर्माण करूंगा’।

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अपनी मूल प्रकृति के अनुसार बच्चे सदैव सीखने का प्रयास करते हैं, इसलिए स्वयं माता-पिता को अपने बच्चों के लिए एक उदाहरण बनना चाहिए। सीखने और आत्मसात करने के लिए प्रारंभिक वर्षों में बच्चों में मस्तिष्क और तंत्रिकाओं की अत्यधिक क्षमता होती है। बच्चे का मन इतना लचीला, इतना नम्य होता है कि उसे अत्यंत सरलतापूर्वक नकारात्मक अथवा सकारात्मक ढंग से ढाला जा सकता है। मैं दृढ़तापूर्वक इसमें विश्वास रखता हूं, क्योंकि वर्तमान संसार में माता-पिता के उत्तरदायित्वों पर पर्याप्त बल नहीं दिया जाता है। यदि आप एक बच्चे को जन्म देने जा रहे हैं, तो आपको ही उसका उत्तरदायित्व स्वीकार करना होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि आपको सभी आधुनिकतम वीडियो गेम, कपड़े, अमुक फैशन और अमुक प्रकार के उपकरण आदि खरीदने की आवश्यकता है। ना ही आवश्यकता इस बात की है कि आप एक ऐसे व्यक्ति बनें, जिसे आपका बच्चा आदर और सम्मान की दृष्टि से देखे।

भारत में (और संभवतः संपूर्ण विश्व में) मां परिवार का केंद्र होती है, जो निरंतर परिवार, पारिवारिक कर्तव्यों, आजीविका और हर प्रकार के उत्तरदायित्वों के मध्य संघर्ष करती रहती है। उसके कर्तव्यों की एक लंबी सूची है। मैं एक बात कहना चाहता हूं कि भारत और संपूर्ण विश्व के अधिक विकसित राष्ट्रों में स्त्रियों की वर्तमान परिस्थिति एक संक्रमणकालीन अवस्था है। महिलाओं से इतने अधिक कार्य की अपेक्षा करना उस पीढ़ी की विरासत है, जिसमें स्त्रियां अधिक दबाव में रहती थीं और वे ‘तुम केवल घर में ही रहोगी और भोजन बनाने और सफाई करने का कार्य करोगी’ इत्यादि की धारणा के प्रभाव में उपेक्षित रहती थीं।

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यह एक क्रूर और पूर्वकालिक धारणा है। इसके साथ ही, हम एक प्रकार से मध्यवर्ती अवस्था में हैं, जहां स्त्रियां अपने व्यक्तिगत विकास और अपनी व्यक्तिगत रुचियों के विकास के लिए दूसरे मार्ग खोजने की योग्यता रखती हैं, और यह उचित भी है। परंतु पुरुषों और स्त्रियों के लिए एक संतुलित भूमिका का सम्मान करना तथा घर में और व्यावसायिक जगत में सामंजस्यपूर्ण जीवन का निर्माण करना ही एक यथार्थ आध्यात्मिक संतुलन का जीवन होगा। मैं इसे पूरी तरह से समझता हूं और मैं यह नहीं जानता कि स्त्रियां इसे कैसे सहन करती हैं। सामान्य रूप से स्त्रियां पुरुषों से अधिक शक्तिशाली होती हैं, क्योंकि उन्हें इतने अधिक उत्तरदायित्व निभाने पड़ते हैं।

स्त्रियों को यह सोचने की आवश्यकता नहीं है कि उनके लिए ‘सब कुछ प्राप्त करना’ आवश्यक है : कारपोरेट एक्जीक्यूटिव होना, दो या तीन सफल बच्चे, दो या तीन अच्छे और बड़े घर, एक आदर्श शरीर, आदर्श स्वास्थ्य इत्यादि। यह तनावों का वह समूह है, जो लंबे समय तक नहीं टिक सकता है और दुर्भाग्यवश, व्यापक रूप से यह समाज अभी भी उचित संतुलन को प्राप्त करने की खोज प्रक्रिया से गुजर रहा है। हमें तब तक सहन करना पड़ेगा, जब तक कि वह परिस्थिति बदल नहीं जाती है। जितना शीघ्र हम इस परिस्थिति को परिवर्तित कर सकें, उतना ही अच्छा है।


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