चिंतन धरोहर: ज्ञान प्राप्त करके सभी आसक्तियों का त्याग करना ही मोक्ष है
परमात्मा का यह साम्राज्य प्राप्त करने के लिए जीवन की पवित्रता तथा आत्म संयम आवश्यक है। इसे हम दूसरी दृष्टि से भी समझ सकते हैं। जीवात्मा परमात्मा की छाया मात्र है। अज्ञान छाया का यह है कि छाया अपने आपको उत्पन्न करने वाले से भिन्न समझती है। पार्थक्य का यह भाव कामना आसक्ति क्रोध और द्वेष से उत्तरोत्तर बढ़ता है।
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी। मोक्ष जीवात्मा द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार है। वह किसी दूसरे लोक अथवा स्थान में पहुंचना नहीं है। इस ज्ञान से मन प्रकाशित हो जाना कि जीवात्मा और अंतर्निवासी परमात्मा एक ही हैं, यही मोक्ष है। समस्त भेदभाव को मिटाना और यह पहचानना ही मोक्ष है कि हमारे आसपास का सब कुछ परमात्मा का अधिष्ठान है। मोक्ष छुटकारा पाना नहीं, एक अवस्था है। इसलिए एक तमिल संत ने कहा है, सत्य-पथ की यात्रा करने से परिशुद्ध हो जाने पर, इंद्रियों को अंतर्मुख करके चित्त को असीम ब्रह्म के ध्यान में लीन कर देने पर सब सुख और दुख छिन्न हो जाते हैं और आसक्ति नष्ट हो जाती है। यही स्वर्ग है। यही स्वर्ग का आनंद है। ज्ञान प्राप्त करके सब आसक्तियां त्याग कर यदि कोई निश्चित होकर समचित्त बन जाता है तो वही मुक्ति है। वही परमानंद है।
इसे न जानकर संसार अज्ञानपूर्वक पूछता है, स्वर्ग कहाँ है? परमानंद कैसा होता है? और वह स्वयं को अनंत भ्रांति में खो देता है। शरीर, आत्मा और परमात्मा का पारस्परिक संबंध बताने की पद्धतियों में भेद है। परमात्मा हमारी समझ में नहीं आता, इसलिए हमारे महान आचार्यों ने निरूपण की अनेक पद्धतियों का अवलंबन किया है। आत्मा शरीर को जीवित शरीर का गुण प्रदान करता है। परमात्मा जीवात्मा को दिव्य तेज देता है। जीवात्मा शरीर में प्राणों का पोषण करता है। परमात्मा जीवात्मा के दैवी स्वभाव का पोषण करता है। जिस प्रकार इस मर्त्य जीवन में शरीर और आत्मा एक सुखमय साम्राज्य में रह सकते हैं, ठीक उसी प्रकार यदि जीवात्मा परमात्मा के सुखमय साम्राज्य में रहे और उसमें कोई अपूर्णता, अज्ञान अथवा अन्यमनस्कता न हो, तो यही मोक्ष है।
यह भी पढ़ें : गोवर्धन पूजा पर करें भगवान कृष्ण के इन मंत्रों और स्तुति का पाठ, जाग उठेगा सोया हुआ भाग्य
परमात्मा का यह साम्राज्य प्राप्त करने के लिए जीवन की पवित्रता तथा आत्म संयम आवश्यक है। इसे हम दूसरी दृष्टि से भी समझ सकते हैं। जीवात्मा परमात्मा की छाया मात्र है। अज्ञान छाया का यह है कि छाया अपने आपको उत्पन्न करने वाले से भिन्न समझती है। पार्थक्य का यह भाव कामना, आसक्ति, क्रोध और द्वेष से उत्तरोत्तर बढ़ता है। मन के जाग्रत होने पर दोनों एक दूसरे में मिल जाते हैं। सूर्य जल पर चमकता है। जब जल में लहरें उठती हैं तो हमें उसमें अनेक छोटे-छोटे सूर्य दिखलाई पड़ते हैं। जीवात्मा जल में सूर्य के प्रतिबिंबों के समान है। जल न हो तो प्रतिबिंब भी न होंगे।
इस प्रकार अज्ञान के मिटने पर जीवात्मा परमात्मा के साथ एक हो जाता है। अज्ञान मिटाने और ज्ञान प्राप्त करने के लिए पवित्रता, आत्मनिग्रह, भक्ति और विवेक की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार रात को सो जाने पर पांचों इंद्रियां आत्मा में विलुप्त हो जाती हैं, उसी प्रकार ज्ञानयुक्त आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाता है। विभिन्न मतों द्वैत, अद्वैत और विशिष्टाद्वैत के दार्शनिकों ने उपयुक्त तथा अनेक अन्य प्रकारों से विषय का प्रतिपादन किया है। उनकी विवेचन पद्धति में अंतर भले ही हो, परंतु उन सबने एक ही वेदांत सम्मत जीवन का निर्देश किया है और वेदांत सम्मत जीवन ही मोक्ष का मार्ग है।