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    कर्मफल एक ऐसा अमिट तथ्य है जिसका परिणाम भोगना पड़ता है

    By Edited By:
    Updated: Mon, 07 Jul 2014 12:41 PM (IST)

    यदि कर्म का फल तुरंत नहीं मिलता है तो इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उसके भले-बुरे परिणाम से हम सदा के लिए बच गए। कर्मफल एक ऐसा अमिट तथ्य है कि जो आज नहीं तो कल भोगना पड़ेगा। कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिए होती है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि व्यक्ति अपने कर्तव्य धर्म को समझ सकने और निष्ठापूर्वक पालन

    कर्मफल एक ऐसा अमिट तथ्य है जिसका परिणाम भोगना पड़ता है

    यदि कर्म का फल तुरंत नहीं मिलता है तो इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उसके भले-बुरे परिणाम से हम सदा के लिए बच गए। कर्मफल एक ऐसा अमिट तथ्य है कि जो आज नहीं तो कल भोगना पड़ेगा। कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिए होती है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि व्यक्ति अपने कर्तव्य धर्म को समझ सकने और निष्ठापूर्वक पालन करने लायक विवेक बुद्धि संचित कर सका या नहीं।
    भगवान ने मनुष्य को भला या बुरा करने की स्वतंत्रता इसलिए प्रदान की है कि वह अपने विवेक को विकसित करके भले-बुरे का अंतर करना सीखे और दुष्परिणामों के शोक-संतापों से बचने और सत्परिणामों का आनन्द लेने के लिए स्वत: अपना पथ निर्माण कर सकने में समर्थ हो। ईश्वर चाहता है कि व्यक्ति अपनी स्वतंत्र चेतना का विकास करे और विकास के क्रम से आगे बढ़ता हुआ लक्ष्य प्राप्त करने की सफलता प्राप्त करे। प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर ने स्वतंत्र इच्छा शक्ति प्रदान की है।
    मनुष्य अच्छा या बुरा करने के लिए स्वतंत्र है। ईश्वर ने यह सीख दी है कि अच्छे का फल अच्छा और बुरे का फल बुरा होता है। यह मानव पर निर्भर है कि वह अच्छे और बुरे कर्मो का निर्धारण किस तरह करता है? वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो कोई भी क्रिया के समतुल्य उतने ही पैमाने पर विपरीत प्रतिक्रिया होती है। स्पष्ट है कि अगर हम अच्छे कर्म करेंगे, तो आज न सही कालांतर में उसका परिणाम किसी न किसी रूप में अच्छा होगा।
    यदि ईश्वर को यह प्रतीत होता कि बुद्धिमान बनाया गया मनुष्य पशुओं जितना मूर्ख ही बना रहेगा तो शायद उसने दंड के बल पर चलाने की व्यवस्था उसके लिए भी सोची होती। तब झूठ बोलते ही जीभ पर छाले पड़ने, चोरी करते ही हाथ में फोड़ा उठ पड़ने, कुविचार आते ही सिरदर्द होने जैसे दंड मिलने की व्यवस्था बनी होती। तब कोई मनुष्य दुष्कर्म करने की हिम्मत नहीं करता, लेकिन ऐसी स्थिति में मनुष्य की स्वतंत्र चेतना, विवेक, बुद्धि और आंतरिक महानता के विकसित होने का अवसर ही नहीं आता और आत्मविकास के बिना पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकने की दिशा में प्रगति ही नहीं होती।

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