जे. कृष्णमूर्ति की जयंती: प्रेम में होती है नैतिकता
जहां प्रेम होता है, वहींनैतिकता, सहजता और सरलता होती है। क्योंकि प्रेम पूर्ण जागरूकता का नाम है। जे. कृष्णमूर्ति की जयंती (12 मई) पर उनका चिंतन.. जे. कृष्णमूर्ति (12 मई, 1
जहां प्रेम होता है, वहींनैतिकता, सहजता और सरलता होती है। क्योंकि प्रेम पूर्ण जागरूकता का नाम है। जे. कृष्णमूर्ति की जयंती (12 मई) पर उनका चिंतन..
जे. कृष्णमूर्ति
(12 मई, 1895-17 फरवरी, 1986)
विश्व के प्रसिद्ध दार्शनिकों में शामिल
जे. कृष्णमूर्ति का दर्शन मानसिक क्रंाति पर आधारित था। बुद्धि की प्रकृति, ध्यान और समाज में सकारात्मक परिवर्तन किस प्रकार लाया जा सकता है, इस पर उन्होंने अनेक प्रवचन दिए। अपनी मसीहाई छवि को अस्वीकृत करके उन्होंने उस धार्मिक संगठन को भंग कर दिया, जो उन्हीं को केंद्र में रखकर बनाया गया था। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि सत्य एक 'मार्गरहित भूमि' है और उस तक किसी भी औपचारिक धर्म, दर्शन अथवा संप्रदाय के माध्यम से नहीं पहुंचा जा सकता।
निश्चत रूप से जो खुद को सांसारिक द्वंद्वों में खपा कर खो चुके हैं, उनके लिए खुद को भीड़ से अलग करना ही समस्या नहीं, अपितु जीवन में वापस लौटना, प्रेम में उतरना, सहज-सरल होना भी एक बड़ी समस्या है। प्रेम के बिना आप कुछ भी करें, आप कर्म की संपूर्णता को नहीं जान सकते। अकेला प्रेम ही आदमी को बचा सकता है। यही सत्य है। हम लोग प्रेम में नहीं हैं। वास्तव में हम उतने सहज-सरल नहीं रह गए हैं, जितना हमें होना चाहिए। क्योंकि हम प्रतिष्ठा पाने, सामने वाले की अपेक्षा विशेष होने की कोशिश में लगे रहते हैं। यह सब अपने लिए है, दूसरों के नाम पर हम स्वार्थो की गर्त में डूबे हैं। हम कवच में समाए घोंघे की तरह हैं।
हम समझते हैं कि हम ही इस सुंदर संसार का केंद्रबिंदु हैं। किसी वृक्ष, किसी फूल या बहती हुई नदी को देखने के लिए हम कभी भी नहीं ठहरते, और अगर कभी ठहर भी जाते हैं, तो मन में चलते हुए कई विचार, स्मृतियां और जाने क्या-क्या आंखों में उस दृश्य के सामने परदे की तरह उतर आता है और हम उस दृश्य को नहीं देख पाते। हमारी आंखों में सौंदर्य और प्रेम नहीं उमड़ता। आप कहते हैं, 'मैं अपनी पत्नी से प्यार करता हूं', पर मैं नहीं जानता कि आपका प्रेम क्या है? मुझे तो संदेह होता है कि शायद ही आप किसी भी चीज से प्रेम करते हों। क्या आप प्रेम का अर्थ जानते हैं? क्या प्रेम आमोद-प्रमोद या मजा है? क्या प्रेम ईष्र्या है? क्या वह व्यक्ति प्रेम कर सकता है, जो महत्वाकांक्षी हो? एक व्यक्ति जो राजनीति या व्यापार जगत में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने के लिए संघर्षरत हो अथवा धार्मिक जगत में कोई संत बनना चाहता हो, प्रेम नहींकर सकते। क्योंकि प्रेम करने के लिए इच्छारहित होना होगा। महत्वाकांक्षाएं और आक्रामकता इच्छाओं के ही अवयव हैं।
क्या किसी प्रतियोगिता या दौड़ में शामिल होने वाला प्रेम में हो सकता है? आप सब प्रतियोगिता में हैं। अच्छे जॉब, बेहतर पद-प्रतिष्ठा, अच्छा घर, अधिक महान विचार पाने में लगे हैं, अपनी सुस्पष्ट छवि बनाने में लगे हैं। आप इन सब से गुजर ही रहे हैं, क्या यह सब प्रेम है? क्या आप तब प्रेम कर सकते हैं, जब आप यह सब सम्पन्न करते गुजर रहे हों? जब आप पत्नी, पति या बच्चों पर अपना प्रभुत्व जमा रहे हों? जब आप ताकत या शक्तिकी खोज में लगे हों? तब क्या प्रेम की कोई संभावना बचती है? इस तरह जितनी चीजें प्रेम नहीं हैं, उन सबको नकारते, अस्वीकार करते हुए हम जहां पहुंचते हैं, वही प्रेम होता है। आपको उस सबको अस्वीकार या नकारना होगा जो प्रेम नहीं है। जब आप उन सबको नकार देंगे जो प्रेम नहीं है, तब आप जानेंगे कि प्रेम क्या है।
क्या क्षमा कर देना प्रेम है? मान लें, आपने मेरा अपमान किया और मैं नाराज हो गया। मैंने कहा 'मैं तुम्हें माफ करता हूं'। पहले तो 'मैं' ने अपमान को स्वीकार कर लिया, लेकिन बाद में उसे अस्वीकार कर दिया। इसका मतलब क्या है? 'मैं' ही केंद्र में है। यानी मैं वह हूं जो 'किसी को' क्षमा कर रहा है। जब तक क्षमा कर देने का मनोभाव रहता है, तब तक 'मैं' महत्वपूर्ण रहता है, न कि वह व्यक्ति जिसने मेरा अपमान किया। यह प्रेम नहीं है। एक व्यक्ति जो प्रेम में है, जाहिर है उसमें शत्रुभाव होगा ही नहीं, इसलिए मान-अपमान जैसी सभी चीजों के प्रति वह एक सा तटस्थ या उदासीन होगा। सहानुभूति, क्षमाशीलता, कब्जा जताने वाले या आधिपत्यसूचक संबंध, ईष्र्या और भय, ये सब चीजें प्रेम नहीं हैं। यह सब मन हैं।
इसी तरह प्रेम भावुकता नहीं है। कपोल कल्पनाओं में होना या भावुक हो जाना प्रेम नहीं है, क्योंकि भावुकता, संवेदना अनुभूति आदि उत्तेजनाएं मात्र हैं। यदि कोई धार्मिक व्यक्ति ईसा मसीह या कृष्ण या अपने गुरु का नाम लेकर रो रहा है, तो वह कपोल कल्पनाओं में बह रहा भावुक मात्र है। वह इन उत्तेजनाओं में मग्न है। संवेदना या उत्तेजना विचार की प्रक्रिया है और विचार प्रेम नहीं है। विचार संवेदना का परिणाम है, इसलिए भावनाओं में बह रहा व्यक्ति भी प्रेम नहीं जान सकता। हम भी तो ख्यालों और भावुकता से भरे हैं। ख्यालों, भावों में बह जाना आत्म-अहं विस्तार का ही एक रूप है। क्योंकि यदि एक भावुक व्यक्ति की कल्पनाओं को बह निकलने की जगह नहीं मिलती तो वह बहुत ही क्रूर हो सकता है। एक भावुक व्यक्ति को नफरत और युद्ध के लिए भड़काया-उकसाया जा सकता है। जो व्यक्ति अपने धर्म के लिए आंसुओं से भरा होता है, निश्चित ही उसके पास प्रेम नहीं होता।
हम अपनी इच्छाओं के लिए पागल रहते हैं। हम खुद को इच्छाओं से तुष्ट करना चाहते हैं, लेकिन हम यह नहीं देखते कि वैयक्तिक सुरक्षा की इच्छा, व्यक्तिगत उपलब्धि, सफलता, शक्ति, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा आदि इन इच्छाओं ने इस संसार में कहर बरपाया हुआ है। हमें यह अहसास तक नहीं है कि हम ही इस सब के जिम्मेदार हैं, जो हम कर रहे हैं। अगर कोई इच्छा को, उसकी प्रकृति को समझ जाए, तो उस इच्छा का स्थान या मूल्य ही क्या है? क्या वहां इच्छा का कोई स्थान है, जहां प्रेम है? जहां इच्छा हो, क्या वहां प्रेम के लिए कोई जगह बचती है?
प्रेम के बिना आप नैतिक नहीं हो सकते। वास्तव में आपके पास प्रेम है ही नहीं, आपके पास खुशी या मजा है, उत्तेजना या रोमांच है। ऐसा भी नहींकि प्रेम बहुत पवित्र हो या अपवित्र चीज हो। प्रेम में विभाग या भेद हैं ही नहीं। प्रेम का मतलब है कुछ ऐसा, जिसका आप ध्यान रखें, ख्याल रखें। जैसे किसी वृक्ष की देखभाल, संरक्षण या पड़ोसी का ख्याल रखना या अपने ही बाल बच्चों की देखभाल और ख्याल रखना। यह ध्यान रखना कि बच्चे को उचित शिक्षा मिल रही है, यह नहीं कि स्कूल भेज दिया और भूल गए। उचित शिक्षा का मतलब यह भी नहीं कि उसे बस तकनीकी शिक्षा दी जाए। यह भी देखना कि बच्चे को सही शिक्षक मिले, सही भोजन-पानी मिले, बच्चा जीवन को समझे। प्रेम के बिना आप नैतिक नहीं हो सकते। हो सकता है आप सम्मानीय हो जाएं। आप चोरी नहीं करेंगे, पड़ोसी की पत्नी को नहींदेखेंगे, यह नहीं करेंगे वह नहीं करेंगे। लेकिन यह नैतिकता नहीं है। यह केवल सम्मानीयता के अनुरूप होना है। जहां पर प्रेम होता है वहीं पर नैतिकता होती है।
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