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    ईशा क्रिया : ज्यादा प्राणवान और जीवंत होने की विधि

    By Preeti jhaEdited By:
    Updated: Thu, 11 Jun 2015 12:36 PM (IST)

    योगिक परंपरा में योग और ध्यान की अनेक विधियां हैं, जिन्हें शिक्षक या फिर गुरु से मिले निर्देशों के अनुसार किया जाना चाहिए। क्या कोई ध्यान विडियो के माध्यम से भी सीखा जा सकता हैं?

    ईशा क्रिया : ज्यादा प्राणवान और जीवंत होने की विधि

    योगिक परंपरा में योग और ध्यान की अनेक विधियां हैं, जिन्हें शिक्षक या फिर गुरु से मिले निर्देशों के अनुसार किया जाना चाहिए। क्या कोई ध्यान विडियो के माध्यम से भी सीखा जा सकता हैं?

    आध्यात्मिक विकास की संभावनाएं जो पहले केवल योगियों और संयासियों के लिए ही थी अब ईशा क्रिया के द्वारा सभी लोगों को उनके घर की सुख सुविधा में बैठे प्राप्त हो सकती है।

    योग विज्ञान के शाश्‍वत ज्ञान का हिस्‍सा है ईशा क्रिया। सद्‌गुरु ने ईशा क्रिया को एक सरल और शक्तिशाली विधि के रूप में पेश किया है। ईशा का अर्थ है, “वह जो सृष्टि का स्रोत है” और क्रिया का अर्थ है, “आंतरिक कार्य।” ईशा क्रिया का उद्ददेश्य मनुष्य को उसके अस्तित्व के स्रोत से संपर्क बनाने में सहायता करना है, जिससे वह अपना जीवन अपनी इच्छा और सोच के अनुसार बना सके। ईशा क्रिया के दैनिक एवं नियमित अभ्यास से जीवन में स्वास्थ्य, कुशलता, शांति और उत्‍साह बना रहता है। यह आज के भाग दौर वाले जीवन के साथ तालमेल बिठाने के लिए एक प्रभावशाली साधन है।

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    ईशा क्रिया ध्यान की एक सरल प्रक्रिया है। इसका आसानी से अभ्‍यास किया जा सकता है। विडियो में बताई गई विधि के साथ यह ध्यान सीखा जा सकता है और इसे डाउनलोड किया जा सकता है। जो लोग चंद मिनट का समय निकालने को तैयार हैं उन सभी का जीवन रूपांतरित करने की इसमें शक्‍ति है।

    तो आज आप जानेंगे ईशा क्रिया क्‍या है और क्‍याें करें इसका अभ्‍यास।

    भाग:2 में आप जानेंगे कैसे करें ईशा क्रिया का अभ्‍यास। आइए देखते हैं भाग- 1 वीडियो…

    अक्सर पूछे जानें वाले कुछ प्रश्न

    यह ध्यान करने से आखिर होता क्‍या है?

    सद्गुरुः यह क्रिया आपके और आपके शरीर, आपके और आपके मन के बीच एक दूरी बनाती है। आप जीवन में जूझ इसलिए रहे हैं, क्योंकि आपने इन सीमित रूपों के साथ अपनी पहचान बना ली है। ध्यान की खासियत यह है कि आप और जिसे आप अपना ‘मन’ कहते हैं, उनके बीच एक दूरी बन जाती है। आप जिस भी पीड़ा से गुजरते हैं, वह आपके दिमाग की रचना है; क्या ऐसा नहीं है? अगर आप खुद को दिमाग से दूर कर लेते हैं, क्या आपके भीतर पीड़ा हो सकती है? यहीं पीड़ा का अंत हो जाता है।

    जब आप ध्यान करते हैं, आपके और आपके दिमाग के बीच एक दूरी पैदा हो जाती है, और आप शांतिपूर्ण महसूस करने लगते हैं। पर समस्या यह है कि जैसे ही आप अपनी आँखें खोलते हैं, आप फिर से अपने दिमाग के साथ उलझ जाते हैं। अगर आप रोज ध्यान करेंगे, एक दिन ऐसा आएगा जब आप अपनी आँखे खोलेंगे और तब भी आप अनुभव करेंगे कि आपका दिमाग वहाँ है और आप यहाँ हैं। यह तकलीफों का अंत है। जब आप अपने शरीर और अपने मन के साथ अपनी पहचान बनाना बंद कर देते हैं, आप अपने भीतर सृष्टि के स्रोत से जुड़ जाते हैं। जैसे ही ऐसा होता है, आपके ऊपर कृपा होती है।

    चाहे आप कहीं रहें, यहाँ या किसी दूसरे लोक में, अब तकलीफों का अंत हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि अपने कर्मों की पूरी गठरी – अपने अतीत और अचेतन मन – को किनारे कर दिया है। आपके ऊपर इनका कोई असर नहीं होता। जैसे ही पीछले कर्मों का आपके ऊपर असर समाप्त हो जाता है, तब जीवन एक विशाल संभावना बन जाता है।

    हर साँस आपके जीवन में एक महत्वपूर्ण संभावना बन जाती है, क्योंकि अब आपके वजूद पर आपके अतीत का कोई असर नहीं होता। जब आप यहाँ बैठते हैं, आप भरपूर जीवन होते हैं। जिंदगी सहज हो जाती है।

    यह ध्‍यान करने से मुझे क्या फायदा है?

    सद्गुरुः सबसे पहले, ध्यान करने की क्या जरूरत है? यह जो जीवन-प्रक्रिया शुरू हुई, यह आपका सचेतन चुनाव नहीं था। यह बस आपके साथ हो गया। जब आप पैदा हुए, आपका शरीर कितना छोटा था और अब यह बड़ा हो गया है। यह बिलकुल साफ है कि यह शरीर आपने कहीं बाहर से इकट्ठा किया है। यह एक संग्रह है। जिसे आप ‘मेरा शरीर’ कहते हैं वह भोजन का एक ढेर है। इसी तरह जिसे आप ‘मेरा मन’ कहते हैं वह संस्कारों का एक ढेर है। आप जो भी बटोरते हैं, वह आपका हो सकता है पर वह स्वयं आप नहीं। बटोरने का मतलब ही है कि आपने कहीं और से जमा किया है। आज आप 70 किलो वजन का शरीर बटोर सकते हैं, पर आप इसे 60 किलो करने का फैसला कर सकते हैं। आप उस 10 किलो वजन को ढूँढने नहीं निकलते, क्योंकि वह तो सिर्फ एक संग्रह था। जब आप वजन कम कर लेते हैं, यह गायब हो जाता है। इसी तरह आपका मन प्रभावों व संस्कारों का एक ढेर है।

    जैसे ही आप अपने अनुभवों से अपनी पहचान बना लेते हैं, जैसे ही आप अपनी पहचान किसी ऐसी चीज से बना लेते हैं जो आप नहीं हैं, आपकी समझ, आपकी बोधन-क्षमता, पूरी तरह बेकाबू हो जाती है। आप जीवन को वैसे नहीं देख सकते जैसा वो है; अपकी ग्रहण करने की क्षमता बहुत ज्यादा विकृत हो जाती है। यह शरीर जिसे अपने बाहर से इकट्ठा किया है, जैसे ही आप इसे ‘स्वयं’ के रूप में अनुभव करने लगते हैं, जैसे ही आप अपने दिमाग पर पड़े प्रभावों व संस्कारों को ‘स्वयं’ के रूप में अनुभव करने लगते हैं, आप जीवन को उस तरह से नहीं अनुभव कर सकते जैसा वह है। आप जीवन को उस तरह से अनुभव करेंगे जैसा आप के जीवित रहने के लिए जरूरी है, वैसा नहीं जैसा वह असल में है।

    जब आपने मानव देह धारण किया है तो इसे जीवित रखना बहुत जरूरी है, पर यह काफी नहीं है। अगर आप इस ग्रह के किसी दूसरे प्राणी की तरह आए होते तब, पेट भरा कि जीवन बेफिक्र हो जाता। परंतु जब आप एक मनुष्य के रूप मे आए हैं; जीवन सिर्फ जीवित रहने तक ही सीमित नहीं है। एक मनुष्य के लिए जीवन वाकई में तब शुरू होता है जब जिंदा रहने की उसकी जरूरतें पूरी हो जाती हैं। ध्यान आपको एक अनुभव कराता है, एक आंतरिक अवस्था जहाँ ‘मेरा’ क्या हैं और ‘मैं’ कौन हूँ यह अलग-अलग हो जाता है। एक दूरी बन जाती है, आप क्या हैं और आपने क्या जमा किया है, इनके बीच एक फरक आ जाता है। फिलहाल हम इसे ही ध्यान कह सकते हैं।

    इसे करने से क्या लाभ होगा? यह आपकी समझ में पूर्ण स्पष्टता लाता है। आप जीवन को वैसे देख पाते हैं जैसा वह है, बिना किसी तोड़ मरोड़ के। अभी आप इस दुनिया में किस तरह जी रहे हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप दुनिया को कितने स्पष्ट तरीके से देख पा रहे है। यदि मुझमें समझ नहीं है केवल आत्मविश्‍वास है तो मैं मूर्ख ही साबित होऊंगा। अधिकतर लोग समझ की कमी को अत्‍मविश्वास बढ़ाकर के पूरा करने की कोशिश करते हैं। वास्तव में समझ का स्थान कोई और चीज नहीं ले सकती। जब आप को यह समझ आ जाती है तो आप स्वाभाविक रूप से ध्यान की और झुकते हैं। तब आप सभी गलत धरनाओं से मुक्त होना चाहेंगे और जीवन को वैसा ही देखेंगे जैसा वह है, क्‍योंकि तब आप जीवन डगर पर बिना किसी रूकावट के, बिना कोई ठोकर खाए चलना चाहेंगे।

    साभार: सद्गुरु (ईशा हिंदी ब्लॉग)