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    Samudra Manthan: कैसे हुई ऐरावत हाथी की उत्पत्ति? स्वर्ग नरेश इंद्र से जुड़ा है कनेक्शन

    By Jagran News Edited By: Pravin Kumar
    Updated: Mon, 09 Sep 2024 01:45 PM (IST)

    श्रीमद्भागवतमहापुराण में वर्णित समुद्र-मंथन की कथा मनुष्य के सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन का पथ प्रशस्त करती है। मानव जीवन का साफल्य किसमें है इसका बोध कराती है। भोग और ऐश्वर्य की कामना वाला व्यक्ति भगवद्भक्तिरूपी अमृत का रसास्वदन ही नहीं कर सकता है क्योंकि भोग और ऐश्वर्य की कामना राजसी बुद्धि है। जहां भगवद्भक्ति का प्राधान्य होगा वहां राजसी और तामसी प्रकृति अपना प्रभाव नहीं डाल सकती है।

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    Samudra Manthan: भोग और ऐश्वर्य की कामना राजसी बुद्धि है

    आचार्य नारायण दास (श्रीभरतमिलाप आश्रम, ऋषिकेश)। समुद्र मंथन के चौथे क्रम में ऐरावत हाथी निकला, जिसे देवराज इंद्र ने लिया। हाथी के वैशिष्ट्य के विषय में वर्णित है, उसके वर्ण की समुज्ज्वलता कैलाश पर्वत की शोभा को भी विलज्जित करती थी। उसके चार बड़े-बड़े दांत हैं। हाथी के संदर्भ में हमारे आचार्यों ने उसे भोग बुद्धि प्रधान प्राणी बताया है। देवता की बुद्धि ऐश्वर्य प्रधान होती है, उनके राजा इंद्र हैं, जो कि महत्वाकांक्षी और ऐश्वर्यप्रधान हैं।

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    यह सिद्धांत है, भोग और ऐश्वर्य की कामना वाला व्यक्ति भगवद्भक्तिरूपी अमृत का रसास्वादन ही नहीं कर सकता है, क्योंकि भोग और ऐश्वर्य की कामना राजसी बुद्धि है। जहां भगवद्भक्ति का प्राधान्य होगा, वहां राजसी और तामसी प्रकृति अपना प्रभाव नहीं डाल सकती है। जहां सूर्य उदय है, वहां अंधकार कैसे हो सकता है। धनादि में रमण करने वाला प्राणी कदापि भगवद्भक्ति का रसास्वादन नहीं कर सकता है। हाथी के चार बड़े-बड़े दांत हैं, जो व्यक्तिगत मान-सम्मान, बड़ाई, ईर्ष्या और निज-वर्चस्व के प्रतीक हैं। आज संसार में इन्हीं चारों को लेकर सर्वत्र द्वंद्व दिखाई और सुनाई पड़ता है।

    हाथी का वर्ण चमकदार है जो कैलास की शोभा को भी धूमिल कर रहा है। इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति का वर्ण-कुल-पद आदि कितना भी उच्च और गरिमा से युक्त क्यों न हो, किंतु यदि उसका विचार उच्च नहीं होगा, तो उसके कार्य-व्यवहार में पारदर्शिता का अभाव होगा और वह शोषणकारी प्रवृत्ति का होगा। हाथी की आंखें उसके शरीर की अपेक्षा बहुत छोटी होती हैं। इसका तात्पर्य हम हर प्रकार से श्रेष्ठ क्यों न हो किंतु हमारी दृष्टि सूक्ष्म होनी चाहिए।

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    सूक्ष्मदृष्टि ही आत्मदृष्टि होती है, किंतु यदि दृष्टि संसार के नश्वर जड़ पदार्थों पर होगी, तो हमारी आत्मदृष्टि कैसे होगी? तब निश्चित ही हम भगवद्भक्तिरूपी सुधापान से सदा वंचित रहेंगे। देवराज इंद्र भोग और ऐश्वर्य प्रधान व्यक्तित्व के तथा हाथी इंद्रियसुख प्रधान मोहाबद्ध जीव के प्रतीक हैं। जब तक मन, बुद्धि और इंद्रियां भौतिक सुखों में रमण करेंगी, तब तक हम आत्मबोध रूपी सुधामृत से वंचित ही रहेंगे।