Jeevan Darshan: रहना चाहते हैं सुखी और प्रसन्न, तो इन बातों का जरूर रखें ध्यान
एक ही सत्य को अनेक लोग अपनी-अपनी प्रज्ञा भेद के कारण अलग-अलग रूपों में बताते और लिखते हैं। सार और तत्व को ग्रहण करने वाला प्रबुद्ध साधक उसमें से छिलका गुठली और सूते को निकालकर रस रूप कृपा को ग्रहण कर लेता। संत भक्त ज्ञानी हमेशा तत्व ही बताते हैं पर साधक की मति केवल उतने को ही तत्व मानती है।
स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। कभी भी सर्वश्रेष्ठ बनने का प्रयास करके उपेक्षा और उपहास का पात्र मत बनिए। जो लोग किसी कार्य में असफल हो जाते हैं, आवश्यक नहीं कि वे अज्ञानी ही हों। वे केवल इसलिए अज्ञानी कहलाते हैं, क्योंकि वे अपनी क्षमता और रुचि को ठीक से नहीं समझ पाते और श्रेष्ठ की जगह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ कहलाना चाहते हैं। श्रेष्ठ होने की स्थिति जितनी श्रेष्ठ है, सर्वश्रेष्ठ कहलाने की इच्छा उतनी ही घातक। जीवन को समझ लें। बौद्धिक चातुर्य की आयु बहुत कम होती है। पवित्र भावराज्य अनंत होता है। आपको घी का स्वाद तब आएगा, जब आप गाय का पालन व सेवा करें और मक्खन से घी बनने तक की प्रक्रिया सीख लें।
किसी प्रवचन या लेखन को सुनकर या पढ़कर वाक्यों में से जिज्ञासा निकल आती है और हमारी प्रज्ञा उसके तत्व को ग्रहण नहीं कर पाती है। इस तत्व को ग्रहण न कर पाने का कारण अज्ञान कदापि नहीं होता है। इसको न समझ पाने का कारण बौद्धिक प्रमाद, अज्ञानजन्य पूर्वाग्रह एवं साधक का अहंकार होता है। भगवान के प्रति शरणागति और भगवान के प्रति विश्वास से ही व्यक्ति को ज्ञान पाने और धारण करने की क्षमता मिलती है, जब साधक संसार में से संसार को निकालकर ईश्वर रूपी तत्व को ग्रहण कर लेता है।
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एक ही सत्य को अनेक लोग अपनी-अपनी प्रज्ञा भेद के कारण अलग-अलग रूपों में बताते और लिखते हैं। सार और तत्व को ग्रहण करने वाला प्रबुद्ध साधक उसमें से छिलका, गुठली और सूते को निकालकर रस रूप कृपा को ग्रहण कर लेता। संत, भक्त, ज्ञानी हमेशा तत्व ही बताते हैं, पर साधक की मति केवल उतने को ही तत्व मानती है, जो उसकी मान्यता, पूर्वाग्रह, अज्ञानजन्य प्रमाद और अहंकार को तुष्ट करता हो। जो शेष है, उस तात्विक सार को निस्सार और मिथ्या मानकर छोड़ देती है।
सार को छोड़ देना ही कुमति है, ग्रहण कर ले तो वही सुमति हो जाएगी। साधक निस्सार अहं समर्थन को भक्ति या ज्ञान मानकर कर्म में प्रवृत्त होता है और वहां संसार में जाकर भी वह निस्सार को ही ग्राह्य मानकर ग्रहण करता है। वह ईश्वर विरोधी या नास्तिक होकर सत्य की ही निंदा करता रहता है। परिणाम यह होता है कि सत्य को जानने वाले उसके अज्ञान का उपहास करते हैं और उसके शेष गुणों का उपयोग करते हैं।
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व्यक्ति को चाहिए कि ईश्वर, ईश्वर की कृपा, करुणा, दया और शरणागत वत्सलता को ही ग्रहण करे, क्योंकि सारे कुओं में जल एक ही है। आकाश एक, वही अखंडमंडलाकारं है, जो सचराचर में व्याप्त है। उससे अलग कुछ है ही नहीं। अधिकांश बार हमारे दुख का कारण मात्र हम स्वयं होते हैं और हमें दोष कहीं अन्यत्र दिखाई देता है। सत्य का साक्षात्कार हो जाने पर सब कुछ प्रभु कृपा ही दिखाई देती है।