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    Guru Purnima 2025: कब और क्यों मनाई जाती है गुरु पूर्णिमा? यहां जानें धार्मिक महत्व

    By Jagran News Edited By: Pravin Kumar
    Updated: Mon, 07 Jul 2025 12:55 PM (IST)

    मानस ने भवानी को श्रद्धा कहा है। गुरु श्रद्धा रूप है गुरु श्रद्धा मूर्ति है परम श्रद्धेय है। यह गौरीय वृत्ति है। हमारे जैसे सांसारिक लोगों के लिए सदशि ...और पढ़ें

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    Guru Purnima 2025: शिव हैं परम गुरु और शिव हैं त्रिभुवन गुरु

    मोरारी बापू (प्रसिद्ध कथावाचक)। गुरू प्रवृत्ति में भी निवृत्ति का स्वभाव रखता है और निवृत्ति में भी फलाकांक्षा छोड़कर प्रवृत्तिमय दिखता है। गुरु की महिमा का वर्णन करना सदा असंभव है। हमारे गुजराती में संतवाणी में गाया जाता है- गुरू तारो पार न पायो। गुरु दो काम करता है। गुरु श्रुति का दान भी करता है और स्मृति का दान भी करता है। श्रुति का दान वेद का दान है, ज्ञान का दान है। स्मृति का दान है भक्ति का दान, सुमिरन का दान, सुरति का दान। गुरु दोनों करता है।

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    गुरु की छह प्रकार की वृत्ति होती हैं। गुरु की पहली वृत्ति है गणेश वृत्ति। विनायक वृत्ति। गणेश वृत्ति का एक अर्थ है मन, बुद्धि, चित्त ये तीनों जिसके चंचल नहीं हैं, सम्यक हैं। गजानन के रूप में गणेश को हम देखते हैं। हाथी की ये तीनों वृत्ति चंचल नहीं होतीं।

    हाथी का मन कभी चंचल नहीं होता। उसमें धैर्य होता है। जिसके पास मन नहीं, उसको सत-असत समझ नहीं आता। क्या भोग्य है, क्या अभोग्य है, क्या भोज्य है, क्या अभोज्य है, ऐसे निर्णय मन करेगा। हाथी पहचान कर लेता है। हाथी में और पशुओं की तुलना में बुद्धि होती है। गोस्वामी जी ने गणपति को बुद्धि विशारद कहा है, लेकिन उसकी बुद्धि चंचल नहीं है, स्थिर है। सम्यक है।

    अन्य प्राणियों की तुलना में हाथी चिंतनशील है। आंख को आधी खुली रखना, आंख को सूक्ष्म रखना चिंतन का प्रतीक है। जिसका चिंतन, जिसका मनन, जिसका निर्णय मन, बुद्धि, चित्त में चंचल नहीं है, वह गणेश है। आप कहेंगे कि अहंकार छोड़ दिया। गुरु में अहंकार होता ही नहीं, इसलिए छोड़ दिया।

    दूसरी, गुरु में गौरी वृत्ति होती है। गौरी माने भवानी। मानस ने भवानी को श्रद्धा कहा है। गुरु श्रद्धा रूप है, गुरु श्रद्धा मूर्ति है, परम श्रद्धेय है। यह गौरीय वृत्ति है। हमारे जैसे सांसारिक लोगों के लिए, सदशिष्य के लिए, सद्आश्रित के लिए तो गुरु श्रद्धेय है ही, लेकिन गौरी वृत्ति वाले गुरु को भी अपने शिष्य पर श्रद्धा होती है। केवल शिष्य ही गुरु में श्रद्धा रखे, ऐसी बात नहीं।

    शिष्य के अवज्ञा करने पर भी गुरु अपने शिष्य पर श्रद्धा रखता है, क्योंकि यह गौरी वृत्ति वाला है। मैं कोई गुरु तो नहीं, लेकिन कभी मुझसे भी कई लोग किसी के बारे में कहते हैं कि इसने यह गलत किया, यह बेईमानी की, फिर भी आप इतना आदर देते हैं। मेरे भाई बहन, हम संसारी जीव हैं। कई प्रकार के भावांतर में जीते हैं। कभी यह भाव, कभी वह भाव। ऐसे समय में गुरु की श्रद्धा बनी रहती है।

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    तीसरी है गंगा वृत्ति। गंगा निरंतर ठाकुर के चरणों से, ब्रह्मा जी के कमंडल से, शिव की जटाओं से निकल कर हरिद्वार, प्रयागराज होते हुए गंगासागर तक ऊपर से नीचे आती है। गुरु वह है, जो अपनी समस्त स्थिति को छोड़कर हमारे जैसे पतितों को पावन करने के लिए हमारे तक आता है। खारे सागर तक जाता है। गंगा रोज नित नूतन होती है। निरंतर प्रवाहमान है। गंगवृत्ति वाला गुरु वह है, जो हमारे लिए ऊपर से नीचे आता है। उपकारक है और नित नूतन है। गुरु रोज नया है और गुरु प्रवाही परंपरा का वाहक है, जड़ नहीं।

    चौथी वृत्ति है गौ वृत्ति। गुरु गाय जैसा होता है- सरल सुभाउ न मन कुटिलाई, जथा लाभ संतोष सदाई। गरीब आंखें, गरीब स्वभाव, सरल चित, सहज जीवन... ऐसी वृत्ति वाला गुरु मेरी दृष्टि में गौ वृत्ति वाला है। पांचवी वृत्ति है गगन वृत्ति। गुरु इतना विशाल है कि जिसको नापा नहीं जा सकता। संकीर्णता का जहां लेश नहीं। आकाश में सब कुछ है, शुभ ग्रह भी और अशुभ ग्रह भी। आकाश की विशालता जीती नहीं जा सकती। अलौकिक विशालता गगन वृत्ति है। छठी वृत्ति है-गुणग्राही वृत्ति। जहां से सत्य मिलेगा, ले लेगा। इस विचार को आत्मसात करता हुआ- संय हंस गुन गह हि पय परिहरि वारि विकार। ये गुणग्राही वृत्ति है।

    अब बात करें गुरु के वर्ग की। एक गुरु होता है परमगुरु। शिव हैं परम गुरु और शिव हैं त्रिभुवन गुरु। परमगुरु एक ऐसी स्थिति है, जो सामान्य दृष्टि से दिखेगी नहीं, लेकिन सब उसकी कृपा से चलता है। दिखाई नहीं देता, लेकिन होता है सब परम गुरु, त्रिभुवन गुरु की छाया में। कभी-कभी तो लगता है गुरु की कृपा हमारा पीछा करती है अदृश्य रूप में। दूसरा है सदगुरु। सद्गुरु दिखता है, परमगुरु दिखता नहीं। सदगुरु महसूस होता है। सदगुरु वह है, जिसे सब प्यार करते हैं। लाख कोशिश करें, उससे प्यार किए बिना रह नहीं सकते। किसी न किसी रूप में उसके साथ जुड़ना ही होता है।

    जड़ चेतन, पशु प्राणी, जीव जंतु, तारे सितारे, ग्रह नक्षत्र सबको वह प्यारा लगता है। किसी भी रूप में हम जुड़ेंगे तो उससे ही। सब उससे प्यार करते हैं। गीत है ना- जिन्हें हम भूलना चाहें वो अक्सर याद आते हैं, बुरा हो इस मुहब्बत का वो क्योंकर याद आते हैं। तीसरा है जगदगुरु। कृष्णं वंदे जगद्गुरुं। आदि शंकराचार्य भगवान, वल्लभाचार्य भगवान, निंबार्काचार्य भगवान जगद्गुरु हैं। जगद्गुरु वह है, जिसकी दुनिया में जयजयकार होती।

    एक होता है धर्मगुरु। बहुधा देखने मे आता है कि धर्म गुरु से लोग डरते हैं। कब शाप दे दे, कब नाराज हो जाए। सभी धर्म गुरु ऐसे नहीं होते, लेकिन बहुधा लोग इनसे कांपते हैं, धर्मगुरुओं से डरते हैं। वह बताएगा तुमने यह पाप किया, इसका यह प्रायश्चित करो, नहीं तो यह होगा, वह होगा। वह डराता है और सब डरते हैं।

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    और, एक होता है कुलगुरु। अच्छा शब्द है। कभी-कभी कुलगुरु विपरीत होता है तब आश्रित विद्रोह करता है। भगवान राम के रघुकुल में रवि कुल में "प्रभु तुम्हार कुलगुरु जलधि.." समुद्र को ये सम्मान मिला है, लेकिन जड़तावश समुद्र ने कोई सही उपाय नहीं बताया तो राम ने भी विद्रोह किया।

    असुरों के कुलगुरु हैं शुक्राचार्य। बलिराज जब दान का संकल्प करने गया तो कुलगुरु ने बाधा डाली। संकल्प का जल जारी से निकले, इसके बीच वो बाधक बने। उसे दंडित किया गया। उसके सामने विद्रोह हुआ। विनय पत्रिका में लिखा है कि बलि ने गुरु का विद्रोह करके गुरु को त्याग दिया। कई वर्ग हैं। एक कपटी गुरु भी है।

    कभी-कभी शास्त्रों के द्वारा सम्यक चिंतन सम्यक दर्शन के द्वारा ईश्वर समझ में आ भी जाए, लेकिन गुरु तारो पार न पायो। गुरु का पार पाना बहुत कठिन है। नहीं समझ में आता। गुरु अबूझ है। कभी समझने की कोशिश भी ना करें। उसने हमें समझ लिया, शरण में रख लिया, बस यह पर्याप्त है।