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    Guru Purnima 2025: सच्चे समर्पण से ही मिलता है गुरु का आशीर्वाद, खुल जाते हैं ज्ञान के द्वार

    By Jagran News Edited By: Pravin Kumar
    Updated: Mon, 07 Jul 2025 01:33 PM (IST)

    गुरु (Guru Purnima 2025) का अर्थ अध्यापक नहीं है निश्चित रूप से गुरु शब्द बड़ा व्यापक है। गुरु शब्द में गु का अर्थ अंधकार अर्थात् अज्ञान और रु का अर्थ ज्ञान है। गुरू ही अज्ञानध्वंसकारी सच्चिदानंदघन परमात्मा है इसमें कोई संशय नहीं है। गुरु को केवल वे ही खोज सकते हैं जिनके भीतर सत्य को जानने की अदम्य प्यास या प्रकाश को खोजने की चाह होती है।

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    Guru Purnima 2025: गुरु द्वारा प्रदर्शित साधनपथ में मन शोधन करें

    उदयलक्ष्मी सिंह परमार (अध्यात्म अध्येता, न्यायाधीश)। धर्म द्वैत से प्रारंभ होता है। सृष्टि-सृष्टा, आत्मा-ईश्वर, ज्ञानी-अज्ञानी, सुख-दुख, मृत्यु-जीवन में भेद करता है। इस भेद की प्रतीति मनुष्य के अज्ञान के कारण होती है, जबकि सृष्टि में सर्वत्र एकत्व है। इसी को जानना ज्ञान की परमावस्था या अद्वैतवाद है। धर्म मार्ग है, गंतव्य नहीं। साधन है, साध्य नहीं।

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    साध्य तो ईश्वरानुभूति है, मोक्ष है, मुक्ति है, जिसे प्राप्त करने का प्रयास प्रत्येक साधक करता है। एक साधक के आध्यात्मिक जीवन में गुरु की भूमिका आधारभूत तथा निर्णायक होती है। साधना के आरभ में गुरु मात्र पथ-प्रदर्शक की तरह प्रतीत होते हैं, किंतु शैनः-शैनः साधक का जीवन पूर्णतः गुरु के निर्देशन में संचालित होने लगता है।

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    गुरु कौन होता है? गुरु की भक्ति किस प्रकार की जा सकती है और शिष्य का गुरु के प्रति किस प्रकार का समर्पण होना चाहिए, जैसे प्रश्न भगवती पार्वती द्वारा भगवान शंकर से किए जाने पर नारद जी के प्रति उनकी गुरु भक्ति देखते हुए शंकर जी ने गुप्त गुरु-गीता का उपदेश पार्वती जी को दिया, जो स्कंदपुराण के उत्तरखंड में है।

    गुकारश्चान्धकारः स्याद् रूकारस्तेज उच्यते।

    अज्ञानध्वंसक ब्रह्म गुरूरेव न संशयः॥

    गुरु का अर्थ अध्यापक नहीं है, निश्चित रूप से गुरु शब्द बड़ा व्यापक है। गुरु शब्द में "गु" का अर्थ अंधकार अर्थात् अज्ञान और "रु" का अर्थ ज्ञान है। गुरू ही अज्ञानध्वंसकारी सच्चिदानंदघन परमात्मा है, इसमें कोई संशय नहीं है। गुरु को केवल वे ही खोज सकते हैं, जिनके भीतर सत्य को जानने की अदम्य प्यास या प्रकाश को खोजने की चाह होती है। जिस प्रकार गुरू का अर्थ अध्यापक नहीं हो सकता, इसी प्रकार शिष्य का अर्थ विद्यार्थी नहीं है। विद्यार्थी मात्र ज्ञान की तलाश करता है, वहीं शिष्य अपना सर्वस्व समर्पित कर गुरु के सान्निध्य में इश्वरानुभूति, मोक्ष या मुक्ति को प्राप्त करने का प्रयास करता है। गुरु जो जानता है, उसे बताता नहीं है, बल्कि अनुभव करा देता है।

    शिष्य को गुरु के प्रति पूर्णतः समर्पित हो जाना चाहिए। मनसा, वाचा, कर्मणा भक्ति का विधान प्रत्येक साधना पद्घति में किया गया है। गुरु के सान्निध्य से प्राप्त अनुभव उस प्रकार प्राप्त होता है, जैसे किसी संगीत, सुगंध या प्रकाश को अनुभव करने के लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है।

    जिस प्रकार संगीत की तरंगें कानों को, सुगंध नासिकापुटों को तथा प्रकाश नेत्रों को अनुभव हो जाता है, उसी प्रकार गुरु की कृपा और ऊर्जा शिष्य को तरंगायित कर देती है। जैसे प्रेम, प्रार्थना, परमात्मा, मृत्यु-जीवन बताया नहीं जा सकता, अनुभव किया जा सकता है, उसी प्रकार गुरु कृपा भी अनुभव ही की जा सकती है।

    गुरूणा दर्शितामार्गे मनः शुद्घञच कारयेत्।

    अनित्यं खंडयेत् सर्वं यत्किच्चिदात्मगोचरम्।।

    यावद्देहान्तकालो·स्ति तावद् देवि गुरुं स्मरेत्।

    गुरुलोपो न वक्तव्यः स्वच्छंद यदि भावयेत्॥

    भगवान शंकर भगवती पार्वती जी से कहते हैं, हे देवी! गुरु द्वारा प्रदर्शित साधनपथ में मन शोधन करें और जो कुछ आत्म इंद्रिय विषय हैं, उन सब अनित्य का खंडन करें। जब तक देहांत नहीं होता, तब तक शिष्य का कर्तव्य है कि वह गुरु का स्मरण करे।

    गुरू से कुछ भी पाने के लिए समर्पण प्रथम आवश्यकता है। शिष्य को मन, बुदि्ध, इच्छा, कामना, वासना एवं अहंकार का पूर्णतः समर्पण कर देना चाहिए। तब शिष्य के सुख-दुख, ताप-शाप आदि का पूर्ण दायित्व गुरु का हो जाता है। वह हर प्रकार से उसकी रक्षा करता है। उसके शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक कष्टों का निवारण करता है।

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    गुरु मात्र शरीरधारी पुरूष नहीं, गुरू वह है जो शम, दम, उपरति, तितीक्षा, श्रद्घा और समाधान जैसी संपदाओं से वंदनीय है। शंकर जी पार्वती जी से कहते हैं कि शिष्य को शरीर, मन, प्राण को गुरु चरणों में अर्पित कर देना चाहिए। समर्पण की यह भावना शिष्य की गुरु से तद्रूपता करा देती है और फिर शिष्य, गुरु और परमात्मा की ऐसी त्रिपुटी बन जाती है, जिसमें शिष्य की बुदि्ध ऋतंभरा, प्रज्ञा हो जाती है, जिसमें केवल सत्य का ही साक्षात्कार होता है।

    गुरू की महिमा सर्वत्र है। श्रीराम के गुरू वशिष्ठ, कृष्ण के सांदिपनी, अर्जुन के कृष्ण, नचिकेता के गुरू यमराज, जनक के गुरू अष्टावक्र, शंकराचार्य के गुरू गोविंदपादाचार्य, मीरा के गुरू रैदास, कबीर के गुरु रामानंद, राम कृष्ण के गुरू तोतापुरी, विवेकानंद के गुरू रामकृष्ण, शिवाजी के रामदास, दयानंद के गुरू विरजानंद, ज्ञानेश्वर के निवृत्तिनाथ आदि गुरूओं ने ही अपने शिष्यों की ज्ञान ज्योति को प्रज्वल्लित किया जिससे महानता को प्राप्त हो सके । यह ज्ञान ज्योति ही आध्यात्मिक एवं आत्म ज्योति है, जो बिना सद्गुरू के संभव नहीं है । अर्थात् गुरू वह है जो अज्ञान को निवृत्त कर परब्रह्म का ज्ञान कराता है।