Ganga Dussehra 2025: कब और कैसे हुई देवी मां गंगा की उत्पत्ति? यहां जानें धार्मिक महत्व
भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में गंगा मात्र जलधारा नहीं है यह हमारी पतितपावनी संस्कृति का प्रमाण है। इससे सिंचित समस्त भूमि तीर्थ है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि ‘स्रोतसामस्मि जाह्नवी’ अर्थात् नदियों में मैं गंगा हूं। गंगा के सागर जाने के क्रम में राजर्षि जह्नु ने इस धारा को रुष्ट होकर पी लिया था। उनके द्वारा पुनः प्रकट किए जाने से गंगा का नाम जाह्नवी पड़ा।

आचार्य मिथिलेशनन्दिनीशरण (सिद्धपीठ श्रीहनुमन्निवास,अयोध्या)। पुण्यसलिला गंगा भारत की जीवनरेखा है। सारा भारतीय वाङ्मय गंगावतरण की कथा कहता है। पुराणों के अनुसार, तीन ही पगों में त्रिलोक नापते हुए श्रीहरि के चरण सप्तावरण के ऊपरी तल में जा लगे। त्रिविक्रम हुए भगवान वामन के बाएं चरण के अंगूठे से टकराकर ब्रह्मांड-कटाह का भेदन हो गया। वहां से भगवान के चरणों को पखारती हुई एक चिन्मयी जलधारा गिरी, जिसे ब्रह्माजी ने अपने कमंडल में रख लिया। यही धारा विष्णुपदी कहलाई।
यह दिव्य जलराशि वहां से चार धाराओं में प्रवाहित हुई, जिनका नाम सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा हुआ। कालांतर में महर्षि कपिल का अपराध करने के कारण जलकर भस्म हुए साठ हजार सगरपुत्रों के उद्धार हेतु गंगा जी को धरती पर लाने का प्रयास आरंभ हुआ। सगर के ही पुत्र अंशुमान ने गंगाजी को धरती पार लाने हेतु कठोर तप किया, किंतु वे सफल नहीं हुए। उनके उपरांत उनके पुत्र राजा दिलीप ने भी इस हेतु तप किया, पर वे भी विफल रहे। अंतत:, दिलीप के पुत्र भगीरथ ने बड़ी तपस्या करके गंगाजी को प्रसन्न कर लिया।
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धरती पर आने को प्रस्तुत गंगाजी ने भगीरथ से पूछा कि धरती पर मेरे वेग को कौन सहेगा? राजा परीक्षित ने भगवान शिव से प्रार्थना करके उन्हें गंगाजी का वेग रोकने के लिए कहा। इस प्रकार ब्रह्मा के कमंडल से निकलकर गंगा की धारा भगवान शिव के मस्तक पर गिरी।
हिमालय शिखर से होते हुए गंगा, महाराज भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे उनके पूर्वजों का उद्धार करने के लिये वहां पहुंचीं, जहां सगरपुत्र भस्मीभूत हुए पड़े थे। गंगासागर तीर्थ का निर्माण करती हुई गंगा जी ने स्पर्शमात्र से सगरपुत्रों को सद्गति प्रदान की। भगीरथ के द्वारा लाए जाने से गंगा जी का एक नाम भागीरथी हुआ। गंगा की निर्मल धारा ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की दशमी तिथि को हिमालय से निकली थी। यह तिथि गंगा दशहरा के रूप में प्रसिद्ध है। इस तिथि में गंगाजी का दर्शन-स्पर्श-आचमन तथा स्नान विशिष्ट फल देने वाला होता है।
ज्यैष्ठे मासि क्षितिसुतदिने शुक्लपक्षे दशम्यां हस्ते शैलान्निरगमदियं जाह्नवी मर्त्यलोकम्।
भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में गंगा मात्र जलधारा नहीं है, यह हमारी पतितपावनी संस्कृति का प्रमाण है। इससे सिंचित समस्त भूमि तीर्थ है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि ‘स्रोतसामस्मि जाह्नवी’ अर्थात् नदियों में मैं गंगा हूं। गंगा के सागर जाने के क्रम में राजर्षि जह्नु ने इस धारा को रुष्ट होकर पी लिया था। उनके द्वारा पुनः प्रकट किए जाने से गंगा का नाम जाह्नवी पड़ा।
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गोस्वामी तुलसीदास विनय पत्रिका में ‘जय जह्नुबालिका’ कहकर गंगा की स्तुति करते हैं। वे श्रीरामचरितमानस में गंगा के ईश्वरीय वैभव का संकेत करते हुए उसे नदी मात्र कहने पर आपत्ति करते हैं। गंगा माता के रूप में वंदिता हैं। ज्ञान की नदी मानकर भारतीय ऋषि पीढ़ियों से गंगातट पर बसते आए हैं। गंगाजी का स्नान ही नहीं, अपितु दर्शन और स्मरण भी पावन कर देता है। गोमुख से गंगासागर तक प्रवाहित गंगा की निर्मल धारा भारत को अक्षुण्ण बनाती है।
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