भगवान के हर अवतार का एक ही लक्ष्य: धर्म की रक्षा और न्याय की विजय!
महर्षिवेदव्यास महाभाग ने श्रीमद्भागवत के प्रथम श्लोक में जीवन-दर्शन को बहुत सुंदर और सरल रूप से परिभाषित किया है। प्रथम मंगलाचरण में उन्होंने सत्य परं धीमहि लिखा है। सत्य ही ईश्वर हैं जो सबके हैं और सबके लिए हैं। इस मंगलाचरण में किसी भी विशेष देव वर्ग या संप्रदाय का समुल्लेख नहीं है। यहां यह संकेत है कि ईश्वर किसी विशेषवर्ग या सम्प्रदाय का नहीं अपितु सत्यपरायण का है।
आचार्य नारायण दास (श्रीमद्भागवत महापुराण मर्मज्ञ)। श्रीमद्भागवतमहापुराण के अनुसार दर्शन का आधार अनुभूति है, क्योंकि समग्र धार्मिक और आध्यात्मिक चिन्तन का मूलाधार श्रद्धा-भक्ति से प्राप्त अनुभव ही है। तर्क-वितर्क से दार्शनिक तथ्यों का प्रतिपादन संभव नहीं है, अपितु उसका अनुभव निष्काम प्रेमाभक्ति से ही प्राप्त होगा। श्रीगुरुगोविंदकृपा से धर्मशास्त्रों का मर्म समझ में आने लगता है, तब जीवन बोझ नहीं अपितु आनंद का विषय बन जाता है।
भौतिक भोगवादी बुद्धिजीवी तथाकथित लोग समाज में ऐसा कहते हुए- देखने-सुनने में आते हैं, वेद और पुराणादि में कहानियों-किस्सों का ही इतिहास लिखा है, जो विज्ञानसम्मत नहीं है। ऐसा कहना-सुनना और उसका अनुमोदन करना महान अज्ञानता और मूढ़ता है। किसी भी देश की संस्कृति और उसके सांस्कृतिकमूल्यों का यथार्थ मूल्यांकन उस देश के ऐतीह्य तथ्यों के आधार पर ही किया जा सकता है।
श्रीमद्भागवत में गुंफित भगवत्कथा-दृष्टांतों से अपने संस्कार-सभ्यता, सच्चरित्र महिमा, परोपकार, त्याग और सुनीतियों का सुंदर बोध होता है, जिसके आधार पर ही राष्ट्र की प्रगति सुनिश्चित होती है। जब जीवन यात्रा में बाधाएं-विपदाएं आती हैं, तब हमें हताश-निराश और अवसाद ग्रस्त होने से श्रीमद्भागवतमहापुराण में वर्णित कथाएं शक्ति प्रदान करती हैं तथा हमारा मार्ग दर्शन करती हैं, जिससे हम अपने कर्तव्यों का सानन्द निर्वहन करते हुए, अंत में मोक्षपद को वरण कर लेते हैं।
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महर्षिवेदव्यास महाभाग नें एक वेद ऋक्- के चार भाग किए- ऋक्, यजुः, अथर्व और साम। तदुपरान्त 17 पुराणों के रचना तथा महाभारत जैसे महान सद्ग्रंथ की रचना की, किंतु फिर भी उनके हृदय को शांति नहीं मिल रही थी।
उसी समय देवर्षि नारद वहां आए और उनसे कहा- हे ऋषिवर! आपने ज्ञान-विज्ञान और भगवदीय कथाओं के माध्यम से समाज को बहुत कुछ दिया है, किंतु जैसी आप से अपेक्षा थी, वैसा भक्तिसंपन्न ग्रंथ आपके द्वारा अभी तक नहीं लिखा गया, जिसको पढ़ने-सुनने और सुनाने वाला व्यक्ति भगवद्भक्ति से अह्लादित हो जाए। अतः आप भगवद्भक्ति प्रधान सद्ग्रंथ की रचना कीजिए।
महर्षिवेदव्यास महाभाग ने श्रीमद्भागवत के प्रथम श्लोक में जीवन-दर्शन को बहुत सुंदर और सरल रूप से परिभाषित किया है। प्रथम मंगलाचरण में उन्होंने " सत्य परं धीमहि" लिखा है। सत्य ही ईश्वर हैं, जो सबके हैं और सबके लिए हैं। इस मंगलाचरण में किसी भी विशेष देव, वर्ग या संप्रदाय का समुल्लेख नहीं है। यहां यह संकेत है कि ईश्वर किसी विशेषवर्ग या सम्प्रदाय का नहीं, अपितु सत्यपरायण का है। जिसके मन, वचन और कर्म में सत्य सुप्रतिष्ठित होता है, उसका जीवन हर्षोल्लास, आध्यत्मिक चेतना और समुत्कर्ष से परिपूर्ण हो जाता है।
जो सत्यस्वरूप परमात्मा हैं, उन्हें कोई भी अपने अनुसार, अपने भाव से उनकी भक्ति कर सकता है। भगवत्कृपा किसी विशेष संप्रदाय, किसी वर्ग विशेष या धर्म विशेष के लिए नहीं, अपितु मानवमात्र के लिए है। जब तक भेदबुद्धि है, तब तक अभेद अनंत परमात्मा का बोधत्व संभव नहीं है।
श्रीमद्भागवतकथा का श्रीगणेश नैमिषारण्यक्षेत्र में महर्षिवेदव्यास के प्रिय शिष्य पुराणवेत्ता सूतजी और वयोवृद्ध संत ऋषिवर शौनक जी के संवाद से होता है।
सूतजी अवस्था में छोटे हैं, किंतु ज्ञानवृद्ध हैं। श्रीशौनक जी अनुभववृद्ध ज्ञान-विज्ञान संपन्न वयोवृद्ध ऋषि के साथ-साथ कुलपति के उपाधि से विभूषित हैं। जो दसहजार शिष्यों के पठन-पाठन और उनके भोजनादि की व्यवस्था करे, उसे कुलपति कहा जाता है। श्रीमद्भागवतमहापुराण हमें यह दर्शन कराता है, जाति-पांति से परे ज्ञानवृद्ध का सदा यथोचित सम्मान विनयपूर्वक करना चाहिए।
श्रीशौनक महाभाग ने लोक कल्याण की दृष्टि से छह प्रश्न सूतजी के समक्ष प्रस्तुत किए।
- मनुष्य के लिए श्रेयस्कर क्या है?
- धर्मशास्त्रों का सार क्या है?
- भगवान के अवतार का प्रयोजन है?
- भगवान् के कितने अवतार हुए हैं और आगे क्या होंगे?
- कर्म,अकर्म और विकर्म का क्या स्वरूप है?
- धर्म किसकी शरण में सुप्रतष्ठित रहता है?
मनुष्य के लिए श्रेयस्कर वही है, जिस कार्य-व्यवहार से सबका कल्याण हो। धर्मशास्त्रों का सार भी यही है। भगवान् के अवतार का प्रयोजन धर्म-न्याय की संस्थापना के साथ ही सज्जनों का सम्मान और दुर्जनों का निग्रह।
भगवान के अवतार असंख्य हैं। कोई 10 बताता है, कोई 22 कहता कोई 24 मानता है। लोक में जहां-जहां सत्कर्म और सबके कल्याण का मार्ग किसी के भी द्वारा प्रशस्त और सुप्रतिष्ठित होता दिखाई दे, उसे भगवत्स्वरूप ही समझना चाहिए।
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कर्म- जिस कार्य को करने के पश्चात् कृतत्त्व का भाव उठे अर्थात् यह मैंने किया या करवाया है, ऐसा विचार-भाव बंधन का कारण होता है।
विकर्म- अभिनयात्मक रूप से अपनत्व का प्रदर्शन करते हुए, किसी के सद्भाव का दोहन कर लेना, यह बंधन और दंड के विधान का कारण बनेगा।
अकर्म- जो कार्य-व्यवहार सहज और स्वतः हो तथा जिसके क्रियान्वन में स्वयं के कर्तापन का बोध न हो, जिसमें प्रीति हो, जैसे मां अपने अबोध लाल का पालन-पोषण करती है।
धर्म का अर्थ है, वह शाश्वत-नियम और व्यवस्था, जिसमें सबके कल्याण का हेतु सन्निहित हो। ईश्वर सबका कल्याण करने वाले हैं, इसलिए जो भी लोग भगवान के भक्त हैं और निष्काम प्रेम करते हैं, उन सत्पुरुषों के सदाचरण में धर्म सदा सुप्रतिष्ठित रहता है।
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