दशलक्षण महापर्व
हम सुख के पीछे भागते हैं और सुख हमसे दूर होता जाता है, क्योंकि हम अपनी आत्मा के विरुद्ध जाकर सुख खोजते हैं। सुख खोजने से नहीं, बल्कि आत्मा का स्वभाव जानने से मिलता है। दशलक्षण महापर्व (9 सितंबर से प्रारंभ) यह अवसर प्रदान करता है..
हम सुख के पीछे भागते हैं और सुख हमसे दूर होता जाता है, क्योंकि हम अपनी आत्मा के विरुद्ध जाकर सुख खोजते हैं। सुख खोजने से नहीं, बल्कि आत्मा का स्वभाव जानने से मिलता है। दशलक्षण महापर्व (9 सितंबर से प्रारंभ) यह अवसर प्रदान करता है..
हर व्यक्ति सुख चाहता है। सुख की तीव्र लालसा उसे भौतिक रूप से समृद्ध तो करती है, लेकिन सुख उससे उतनी ही दूर चला जाता है। बेजान वस्तुओं एवं धन-संपदा से घिरा व्यक्ति खुद को आज इसी कारण अकेला मान रहा है, क्योंकि वह सुख के पीछे दौड़ता है। जब भी हम सुख के पीछे दौड़ते हैं, सुख अपने आप और दूर होता जाता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हम विभाव (विपरीत स्वभाव, जैसे काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ आदि) के अतिरेक में आ जाते हैं। सुख का संबंध आत्मा से है। आत्मा अपने स्वभाव में ही सुखी रह सकती है, विभाव में नहीं। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भाव आत्मा में ही उत्पन्न होते हैं, लेकिन वे आत्मा का स्वभाव नहीं, बल्कि विभाव-रूप होते हैं। इसी कारण वे खुद को भी दुख देते हैं और दूसरों को भी।
जैन धर्म में दशलक्षण महापर्व ऐसा पर्व है, जहां आत्मा के स्वभाव की पूजा होती है। क्षमा, मार्दव (विनम्रता), आर्जव (माया का विनाश), सत्य, शौच (निर्मलता), संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रšाचर्य - ये आत्मा के दशलक्षण हैं। यही आत्मा का स्वभाव है। दशलक्षण महापर्व हमें दस दिनों का अवसर प्रदान करता है कि एक बार अपने स्वभाव में रह लो। इन दस लक्षणों को जो व्यक्ति अपने जीवन में उतार लेता है, उसे सुख के पीछे नहीं भागना पड़ता, बल्कि सुख उसके पीछे भागता है। यही वह परमसुख है, जिसकी तलाश हर व्यक्ति को रहती है। वह आत्मा का स्वभाव जानने के बाद ही प्राप्त होता है।
इन दस दिनों में आचार्य उमास्वामी द्वारा पहली शती में रचित संस्कृत के ग्रंथ तलवार्थ सूत्र का स्वाध्याय किया जाता है। यह ग्रंथ सूत्र-शैली में निबद्ध है तथा इसमें दस अध्याय हैं। सनातन धर्म में गीता का, ईसाइयों में बाइबिल का और मुसलमानों में कुरान का जो महत्व होता है, वही महत्व जैन धर्म में तलवार्थ सूत्र का होता है। दशलक्षण महापर्व पर प्रतिदिन एक अध्याय का विवेचन-श्रवण का आयोजन होता है। आत्मा की शुद्धता प्राप्त करने के लिए मन, वचन और काया की शुद्धता आवश्यक है, इसलिए दस दिनों तक कई लोग साधु जैसा जीवन बिताते हैं और अपनी आत्मा के स्वभाव का अनुभव करते हैं। अपने भीतर के स्वभाव के जरिये ही हम परमसत्ता तक पहुंचते हैं, जहां सत, चित और आनंद की अनुभूति होती है। यही असली सुख है।
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