प्रेम अंतर्मन की अभिव्यक्ति और अनुभूति है
प्रेम का संबंध अध्यात्म, अंतर्मन और हृदय से है, जबकि वासना का संबंध हमारे बाहरी शरीर से होता है।
प्रेम अंतर्मन की अभिव्यक्ति और अनुभूति है। प्रेम और वासना में वही फर्क है, जो कंचन और कांच में होता है। यदि हम प्रेम और वासना को एक साथ जोड़कर देखें, तो हमारा नुकसान हो सकता है, क्योंकि तब प्रेम का अर्थ बदल जाएगा। यदि हम प्रेम की परिभाषा वासना की दृष्टि से करें, तो हमारा सारा आध्यात्मिक प्रेम नष्ट हो जाएगा। प्रेम का संबंध अध्यात्म, अंतर्मन और हृदय से है, जबकि वासना का संबंध हमारे बाहरी शरीर से होता है।
किसी के बाहरी स्वरूप को देखकर उसके बारे में कुछ कहना या उसके व्यक्तित्व का आकलन करना ठीक नहीं है, क्योंकि हमें जो उसका बाहरी स्वरूप दिख रहा है, वह वास्तविक नहीं है। महान् मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड ने कहा भी है कि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को देखने के बाद ही उसके व्यक्तित्व का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। ‘व्यक्तित्व’ यूनानी शब्द ‘परसोना’ से बना है। हम यदि किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में जानना चाहें, तो मात्र उसके चेहरे को देखकर क्या जान पाएंगे? बनावटी चेहरे को देखकर उस व्यक्ति के चरित्र का मूल्यांकन करने का प्रयास करेंगे तो हमें क्या हासिल होगा? इसलिए बाहर के आवरण को देखकर सुंदरता का सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। बाहर से हमें जो दिख रहा है, वह बनावटी है, एक ओढ़ा हुआ आवरण है। जैसा वस्त्र आप पहन लेंगे, वैसा ही आपका व्यक्तित्व माना जाएगा।
कबीर ने भी कहा है कि मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा। अर्थात तुम अपने मन को प्रभु के रंग में रंग लो, अपने कपड़े को रंगने से क्या फायदा? कपड़े को मत रंगो, रंगना ही है तो सिर्फ अपने मन को रंगो। मन की पहचान किसी व्यक्ति की असली पहचान होती है। मलिक मोहम्मद जायसी हिंदी साहित्य के महान कवि थे। वह देखने में आकर्षक नहीं थे। एक बार वह किसी रास्ते से होकर कहीं जा रहे थे कि रास्ते में राजा की सवारी आ गई। राजा की नजर जैसे ही जायसी पर पड़ी उनके मुख से हंसी निकल गई। उस हंसी को सुनते हुए जायसी ने राजा से कहा था, ‘ मोही का हंसो कि हंसो भगवान को’ यानी तुम मुझ पर क्या हंसते हो? यदि मुङो देखकर हंसना हो तो भी तुम मुझ पर मत हंसो। मुझ पर हंसने से बेहतर है कि तुम मुङो बनाने वाले (भगवान) पर हंसो
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