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    चिंतन धरोहर: स्वामी विवेकानंद से जानिए क्या है अनासक्ति का सुख?

    By Jagran NewsEdited By: Shantanoo Mishra
    Updated: Sun, 12 Mar 2023 03:22 PM (IST)

    स्वामी विवेकानंद एक महान दार्शनिक थे जिन्होंने विषम परिस्थितियों में भी धर्म का प्रचार देश एवं विदेश में किया था। उनके विचारों का श्रवण और पाठन आज भी कई युवाओं द्वारा किया जाता है। आइए जानते हैं क्या है अनासक्ति का सुख?

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    स्वामी विवेकानंद से जानिए क्या है सुख का सही अर्थ।

    नई दिल्ली, स्वामी विवेकानंद; गीता में हमने यही पढ़ा और सीखा है कि हमें लगातार भरसक काम करते ही जाना चाहिए। काम चाहे कोई भी हो, अपना पूरा मन उस ओर लगा देना चाहिए, पर साथ ही यह भी ध्यान रहे कि हम उसमें आसक्त न हो जाएं। अर्थात अपने कर्म से किसी भी विषय द्वारा हमारा ध्यान न हटे, फिर भी हममें यह शक्ति हो कि हम इच्छानुसार उस कर्म को छोड़ सकें। यदि हम अपने जीवन का विश्लेषण करें तो हम देखेंगे कि दुख का क्या कारण है। हम कोई काम हाथ में लेते हैं और अपनी पूरी ताकत उसमें लगा देते हैं। कभी-कभी यह काम असफल साबित होता है, पर फिर भी हम उसका त्याग नहीं कर पाते। यह आसक्ति ही हमारे दुख का सबसे बड़ा कारण है। हम जानते हैं कि वह हमें चोट पहुंचा रही है और उसमें चिपके रहने से केवल दुख ही हाथ आएगा, परंतु फिर भी हम उससे अपना छुटकारा नहीं पा सकते।

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    मधुमक्खी तो शहद चाटने आई थी, पर उसके पैर उस मधु-चषक से चिपक गए और वह छुटकारा नहीं पा सकी। बार-बार हम अपनी यही स्थिति पाते हैं। यही हमारे अस्तित्व का, हमारे ऐहिक जीवन का संपूर्ण रहस्य है। हम यहां आए थे मधु पीने, पर हम देखते हैं, हमारे हाथ-पांव उसमें फंस गए हैं। आए थे पकड़ने के लिए, पर स्वयं ही पकड़े गए। आए थे उपभोग के लिए, पर खुद ही उपभोग्य बन बैठे। आए थे कुछ काम कराने, पर देखते हैं कि हमसे ही काम लिया जा रहा है।

    हमारे जीवन की छोटी-छोटी बातों का भी यही हाल है। दूसरों के मन हम पर शासन चलाए जा रहे हैं और हम सदा यह प्रयत्न कर रहे हैं कि हमारा शासन दूसरों के मन पर चले। हम चाहते हैं कि जीवन के भोग भोगें, पर भोग स्वयं भक्षण कर डालते हैं हमारी जीवनी शक्ति का। दुख का एक ही कारण है कि हम आसक्त हैं, हम बद्ध हैं। इसीलिए गीता में कहा गया है- निरंतर काम करते रहो, उसमें आसक्त मत होओ। किसी बंधन में मत पड़ो। प्रत्येक वस्तु से अपने आपको स्वतंत्र बना लेने की शक्ति स्वयं में संचित रखो। वह वस्तु बहुत प्यारी क्यों न हो, तुम्हारा प्राण उसके लिए चाहे जितना ही लालायित क्यों ना हों, उसके त्यागने में तुम्हें चाहे जितना कष्ट क्यों न उठाना पड़े, फिर भी अपनी इच्छानुसार उसका त्याग करने की शक्ति मत खो बैठो। कमजोर न तो इह जीवन के योग्य हैं, न पर जीवन के। दुर्बलता से मनुष्य गुलाम बनता है।

    दुर्बलता के कारण ही मनुष्य पर सब प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुख आते हैं। दुर्बलता ही मृत्यु है। लाखों-करोड़ों कीटाणु आज हमारे आसपास हैं, पर जब तक हम दुर्बल नहीं होते, जब तक हमारा शरीर अस्वस्थ नहीं होता, तब तक वे हमें कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकते। ऐसे करोड़ों दुखरूपी कीटाणु हमारे आसपास क्यों न मंडराते रहें, पर चिंता न करो। जब तक हमारा मन कमजोर नहीं होता, तब तक उनकी हिम्मत नहीं कि वे हमारे पास फटकें। उनमें ताकत नहीं कि वे हम पर हमला करें। यह एक बड़ा सत्य है कि बल ही जीवन है और दुर्बलता मरण। बल ही अनंत सुख है, चिरंतन और शाश्वत जीवन है और दुर्बलता ही मृत्यु।

    आज हम अपने मित्रों और संबंधियों में आसक्त हैं, हम अपने बौद्धिक और आध्यात्मिक कार्यों में आसक्त हैं, हम बाह्य वस्तुओं में आसक्त हैं। यह सब क्यों? इसलिए कि उनसे हम सुख मिले। पर सोचो, इस आसक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी कारण से क्या हम पर दुख आता है? अतएव आनंद प्राप्त करने के लिए हमें अनासक्त होना चाहिए।